भागलपुर नरसंहार : पुलिस ने मुसलमानों को जमा किया और वैसा ही किया जैसे जर्मनी में नाजी पुलिस यहूदियों के साथ करती थी

भागलपुर, बिहार : 1989 में करीब दो महीने तक भागलपुर जिला जलता रहा. शहर और आसपास के करीब 250 गांव दंगे में झुलसते रहे. सरकारी दस्तावेजों में मरने वालों की गिनती 1,000 पर जाकर रुक जाती है. मगर लोग कहते हैं कि इन दस्तावेजों के बाहर करीब 1,000 लोग और मरे थे. मरने वालों में करीब 93 फीसद मुसलमान थे.

भागलपुर के दक्षिण में एक गांव है. लोगाइन. यहां 25 घरों को एक छोटा टोला सा था. 27 अक्टूबर को दंगाइयों ने इस समूचे टोले के मुसलमानों का कत्ल कर दिया. फिर लाशों को खेत में गाड़ दिया. इस नरसंहार की किसी को भनक न लगे, इसकी भी तरकीब भिड़ाई. उस खेत के ऊपर सरसों के बीज छींट दिए. जल्द ही वो बीज बढ़कर पौधे बन गए. लाशें शायद हमेशा के लिए छुपी रहतीं. अगर कुत्तों ने मिट्टी में दबी लाशों को खोद न लिया होता. कुत्ते, चील और गिद्ध वहां जुटने लगे. वो सड़े मांस पर दावत उड़ा रहे थे. इसी दावत ने लोगाइन जनसंहार का भंडा फोड़ा. करीब एक महीने बाद लोगों को लोगाइन का सच पता चला. 8 दिसंबर को वहां खुदाई हुई. तब जाकर लाशें मिलीं.

भागलपुर में एक गांव है. चंदेरी. वहां भयंकर नरसंहार हुआ था. गांव की मुस्लिम आबादी डरी हुई थी. सभी ने सोचा, साथ रहेंगे तो बच जाएंगे. सब के सब एक घर में जमा हो गए. भीड़ आई. रात ही रात में करीब 70 लोगों को कत्ल कर दिया. इस नरसंहार से कुछ घंटे पहले वहां सेना आई थी. स्थानीय पुलिस ने सेना से कहा कि आगे जाइए. यहां हम संभाल लेंगे. आश्वासन मिलने के बाद सेना चली गई. उनके जाने के बाद ये नरसंहार हुआ. कहते हैं कि पुलिस भी दंगाइयों के साथ मिल गई थी.

परवत्ती और तिमोनी गांव में रह रहे मुस्लिम दंगे के डर से भाग गए. दंगाइयों ने उनके घरों को लूटा. उनमें आग लगा दी. जो मुसलमान पीछे रह गए थे, उन्हें काट डाला गया. भीड़ ने न बच्चों पर रहम किया, न औरतों पर और न बुजुर्गों पर.

मुहम्मद इल्यास के साथ 38 और लोग थे. सारे मर्द. उन्हें पुलिस ने जमा किया था. कमीशन ऑफ इन्क्वायरी के मुताबिक, ‘जिस तरह से पुलिस ने घरों में घुसकर तलाशी ली और मुसलमानों को जमा किया, वो वैसा ही था जैसा जर्मनी में नाजी पुलिस यहूदियों के साथ करती थी.’ इल्यास और बाकियों को पुलिस एक चौकी पर ले गई. वहां करीब एक घंटे तक उन्हें खूब पीटा. घुटने के बल बिठाया. प्यासा रखा. खूब बदसलूकी की. पुलिस उन्हें कोस रही थी. कह रही थी कि दंगा शुरू क्यों किया. भला हो कुछ पुलिसवालों का. जिन्होंने दया की और इन लोगों को भागलपुर सेंट्रल जेल पहुंचाया. बाहर रहते तो शायद मारे जाते. जेल में थे, सो बच गए.

वासिफ अली भागलपुर के परवत्ती गांव में रहते थे. अग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी में प्रफेसर थे. दंगे की वजह से उन्हें अपने परिवार को लेकर भागना पड़ा. पिता बूढ़े थे. भाग नहीं सकते थे. वासिफ उन्हें घर में ही छोड़कर चले गए. तीन बाद सेना और बीएसएफ के साथ अपने गांव लौटे. घर के अंदर घुसे. उनके बूढ़े पिता की लाश पड़ी थी वहां. बिस्तर पर बिछाए जाने वाले गद्दे में लिपटी हुई. साथ में जो बीएसएफ कमांडर था, उसने भी ये सब देखा. कमांडर के मुंह से निकला- इन लोगों (दंगाइयों) में रत्तीभर भी दया नहीं. न बच्चों के लिए, न औरतों के लिए, न बूढ़ों के लिए. सबको मार रहे हैं.

लोगाइन में करीब 118 लोगों को कत्ल किया गया. चंदेरी में लगभग 70 लोग मारे गए. भाटोरिया में 85 लोगों को मार डाला गया. रासलपुर में करीब 30 लोग मरे. सीलमपुर-अमनपुर में मरने वालों की तादाद 77 के करीब है. लोगाइन में तो मुस्लिम बचे ही नहीं. पूरे गांव में बस एक परिवार बचा रह गया. दंगे के दौरान सबसे ज्यादा भुगतने वाले गांव थे ये.

शाह बानो भागलपुर शहर में रहती थीं. उन्होंने बयान दिया था कि जब दंगाई उनके घर में घुसे, तब पुलिस वहां मौजूद थी. चुपचाप तमाशा देख रही थी. शाह बानो के मुताबिक, पुलिस दंगाइयों को भड़का रही थी. उन्होंने स्थानीय SHO को कहते हुए सुना कि एक भी मुसलमान बचना नहीं चाहिए. जब जिंदा बचे लोग भागकर पुलिस थाने पहुंचे, तो पुलिसवाले उल्टे उनके ऊपर ही चिल्लाने लगे. फिर उनको गाड़ी में भरा और मारवाड़ी स्कूल राहत शिविर पर छोड़कर चले गए. दंगाई भीड़ शाह बानो की मां और दादी को घसीटते हुए बुद्धनाथ मंदिर चौक तक ले गई. कोतवाली पुलिस थाना यहां से बस आधा किलोमीटर दूर है. पर पुलिस नहीं आई. भीड़ ने शाह बानो की मां, दादी और दादा को मार डाला. उनकी 75 साल की नानी को भीड़ ने खटिया से बांध दिया. और आग लगा दी. घर जला. खटिया जली. और खटिया पर बंधी शाह बानो की नानी भी जल गईं.

बीवी फरीदा नाथनगर गांव के नुरपुर मुहल्ले में रहती थीं. उनका छोटा बेटा अशरफ बस 20 साल का था. दंगे में अशरफ मारा गया. उनके बड़े बेटे असद को भी गोली लगी थी. मगर वो बच गया. ये 25 अक्टूबर, 1989 का दिन था. दंगा शुरू होने के एक दिन बाद. बीवी फरीदा ने भी अपने बयान में एक पुलिसवाले का जिक्र किया था. जो कि दंगाई भीड़ से कह रहा था, बस लूटो मत. मुसलमानों को मार डालो. पुलिसवाले जैसे हिंदू बन गए थे. मुसलमान भी थे पुलिस में. उन्होंने दंगाइयों को रोकने की कोशिश भी की. मगर तादाद में कम होने की वजह से बेअसर रहे.

मुहम्मद इकबाल रामपुर गांव में रहते थे. करीब 150 गज की दूरी पर खड़े थे वो, जब उन्होंने देखा कि एक दंगाई भीड़ उनके भतीजे सलीम को मार रही है. उसके सिर पर कुल्हाड़ी और हंसिया से वार कर रही है. फिर भीड़ की नजर इकबाल और उनके साथ खड़े लोगों पर गई. और भीड़ उनके पीछे दौड़ी. ये लोग भागकर पुलिस के पास पहुंचे. उनसे मदद मांगी. मगर पुलिस ने कोई मदद नहीं की. मजबूर होकर इकबाल और उनके साथी जान बचाने की खातिर तैरकर नदी पार कर गए. नदी के उस किनारे इकबाल थे. और नदी के इस किनारे पर भीड़ ने उनके भतीजे सलीम को कत्ल करके उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिए. और फिर उन टुकड़ों को नदी में फेंक दिया. बाद में इकबाल और उनके साथ के एक आदिल नाम के शख्स ने बांका कोर्ट में शिकायत दर्ज कराई. इन लोगों को पुलिस पर रत्तीभर भरोसा नहीं था. मगर अदालत पर यकीन था. आदिल और इकबाल के दो हिंदू दोस्तों ने भी उनके पक्ष में बयान दिया. 11 दिसंबर, 1989 को अदालत ने उनके आवेदन को मंजूर किया. केस दर्ज हुआ. आदिल और इकबाल ने अदालत में कहा कि पुलिस और दंगाइयों में कोई फर्क नहीं बचा था.

मुसलमान जान से भी गए, माल से भी गए
सबसे ज्यादा नुकसान हुआ मुसलमानों का. जान का भी. माल का भी. भागलपुर में सिल्क का कारोबार होता है. 125 साल से भी ज्यादा वक्त से वहां सिल्क का कामकाज हो रहा है. पैसा लगाने वाले ज्यादातर हिंदू हैं. मारवाड़ी समुदाय के. मगर कामगरों में अधिकतर मुसलमान हैं. 1989 में भी ऐसा ही था. हां, कई मुसलमान ऐसे भी थे जिनके पास अपना हैंडलूम था. दंगाइयों ने करीब 1,700 हथकरघाओं को आग लगा दी. दंगे ने न केवल लोगों को मारा, बल्कि बड़ी संख्या में मुस्लिम जुलाहों को बेकार भी कर दिया. कभी जिनके पास अपना हैंडलूम हुआ करता था, वो दंगे के बाद मजदूरी करने लगे. किसी और के पावरलूम पर दिहाड़ी करने लगे. दंगे के बाद अगले कई सालों तक कारोबार उबर नहीं पाया.