गुजरात में दलितों पर बड़ी हिंसा, समाज की छवि पर एक बहुत बड़ा दाग

संविधान में छूआछूत को अपराध माना गया है. लेकिन फिर भी पिछले एक सप्ताह के दौरान गुजरात में दलितों के खिलाफ हिंसा की तीन घटनाएं हुई हैं.मंगलवार की शाम को राज्य की राजधानी गांधीनगर के पास के एक गांव में एक सत्रह-वर्षीय दलित किशोर को केवल इसलिए चाकू मार कर जख्मी कर दिया गया क्योंकि उसने मूंछें रखने का दुस्साहस किया था.

वही इसके दो दिन पहले आणंद जिले के एक गांव में ऊंची जाति के लोगों ने एक दलित युवक की सिर्फ इसलिए हत्या कर दी क्योंकि उसने उनका गरबा नाच देखने की गुस्ताखी की थी. 29 सितंबर को भी एक दलित युवक को मूंछे रखने के लिए पीटा गया था.

आयोग का कहना था कि जून 2016 से लेकर अप्रैल 2017 के बीच केरल में अनुसूचित जाति के लोगों के खिलाफ अत्याचार की 883 घटनाएं हुई थीं. मई 2017 में उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले में व्यापक पैमाने पर दलितविरोधी हिंसा हुई थी. हालांकि संविधान में छूआछूत को अपराध माना गया है और सभी धर्मों, जातियों और समुदायों के नागरिकों को समानता का अधिकार दिया गया है.

पिछले कुछ समय के दौरान गुजरात और उत्तर प्रदेश में दलित नेतृत्व की एक नयी, युवा और उग्र पीढ़ी सामने आयी है जो अपने अस्तित्व और अस्मिता की रक्षा करने के लिए ऊंची जातियों के साथ-साथ पुलिस-प्रशासन को भी टक्कर देने के लिए तैयार है. गुजरात में गौरक्षकों द्वारा दलितों पर ढाए गए अत्याचारों के बाद उभरे जिग्नेश मेवाणी और उत्तर प्रदेश में सहारनपुर की दलित-विरोधी हिंसा के बाद सुर्खियों में आए चन्द्रशेखर आजाद दो ऐसे युवा नेता हैं जिन्होंने बहुत ही थोड़े समय के भीतर अपनी राष्ट्रीय पहचान बनायी है.

ऐसे में दलितों के खिलाफ हो रही हिंसा के कारण जातिगत ध्रुवीकरण होने की संभावना बढ़ जाती है. राजनीतिक दल अक्सर धर्म और जाति के आधार पर ध्रुवीकरण करके चुनावी फायदा उठाने की कोशिश करते हैं. गुजरात में ऊंची जाति का पटेल समुदाय भी राजनीतिक रूप से अपने को संगठित कर रहा है. लेकिन दलितों के बीच पनप रहे आंदोलन का संबंध चुनावी राजनीति से नहीं है, भले ही चुनावों के नतीजों पर उसका असर पड़े.