मुख्य रूप से राजस्थान, हरियाणा, पंजाब और उत्तर प्रदेश में रहने वाले वाले बिश्नोई समुदाय की नींव, माना जाता है कि गुरू जाम्बेश्वर ने 1485 में डाली थी और उनके लिए 29 सिद्धांत तय किए थे. उन्होंने इस समुदाय को 51 साल तक अपने उपदेशों से शिक्षित किया. उनके उपदेशों को
शबदवाणी कहा जाता है और इसमें 120 शबद हैं. बिश्नोई समुदाय के कई लोग खुद को विश्नोई भी बताते हैं और भगवान विष्णु को मानने वाला कहते हैं. वैसे बिश्नोई का एक मतलब राजस्थान में 29 भी होता है.
जिन 29 सिद्धांतों का पालन करना बिश्नोई समुदाय के लिए जरूरी बताया गया है उसमें 10 तो साफ सफाई और बुनियादी स्वास्थ्य से जुड़े हैं, सात स्वस्थ सामाजिक व्यवहार से जुड़े हैं जबकि 4 सिद्धांत ईश्वर की उपासना के बारे में हैं. इनके अलावा 8 सिद्धांत जैव विविधता को बचाए रखने के बारे में है. यही चीज इन्हें बाकी समुदायों से अलग करती है.
दुनिया आज ग्लोबल वार्मिंग के बारे में बात कर रही है लेकिन यह समुदाय बहुत पहले से ही इस चर्चा में शामिल हुए बगैर जीव जंतुओं और पर्यावरण के बेहतर रख रखाव के लिए प्रयास करता रहा है. ये लोग इस मामले में इतने सजग हैं कि खाना बनाने के लिए जब लकड़ी जलाते हैं तो पहले यह सुनिश्चित कर लेते हैं कि कहीं इसमें कोई कीड़ा या सूक्ष्म जीव तो गलती से नहीं आ गया.
इतना ही नहीं इस समुदाय के लोगों के लिए नीले रंग का कपड़ा पहनने की मनाही है क्योंकि नीला रंग तैयार करने के लिए बहुत सी झाड़ियों को काटना पड़ता है.
मुख्य रूप से रेगिस्तानी इलाकों में रहने वाले बिश्नोई समुदाय में जब किसी की शादी होती है तो उस जोड़े को बंजर भूमि पर कुआं खोदना पड़ता है. इसके साथ ही उस जमीन पर बाजरे की खेती कर उसे हरा भरा बनाने की कोशिश करनी पड़ती है.
इतिहास में कई ऐसी कहानियां हैं जिनमें समुदाय के लोग जीवों और पेड़ों की रक्षा के लिए अपनी जान देने से भी पीछे नहीं हटे. इनमें एक बहुत प्रचलित कहानी है खेजारली नरसंहार की. स्थानीय लोग बताते हैं कि जोधपुर के राजा अभय सिंह को नया राजमहल बनाने के लिए लकड़ी की जरूरत थी.
उन्होंने सैनिकों को खेजारली में पेड़ काटने के लिए भेजा लेकिन गांव के लोग पेड़ों चिपक कर खड़े हो गये और पेड़ काटने का विरोध करने लगे. सैनिकों ने पेड़ काटने के लिए सैकड़ों लोगों को मार दिया. जब राजा अभय सिंह को खबर मिली तो उन्होंने उसे रुकवाया लेकिन तब तक 363 लोगों की जान जा चुकी थी.
इन लोगों की खेजारली में ही समाधि बनी और वहां एक मंदिर भी बनाया गया. हर साल बिश्नोई समुदाय के लोग इस मंदिर में जमा हो कर अपने पूर्वजों और आस्था के प्रति सम्मान जताते हैं.
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