भाजपा गुजरात में चुनाव जीत लेगी लेकिन……

यह संयोग हो सकता है पर ठीक ही है कि गुजरात के चुनाव बाबरी मस्जिद ढहाने की 25वीं वार्षिकी के हफ्ते में ही हो रहे हैं। इस दौरान भाजपा गुजरात का एक भी चुनाव नहीं हारी है और जिसकी परिणति बाबरी विध्वंस में हुई, वह रथयात्रा भी गुजरात से ही शुरू हुई थी। इसके तत्काल बाद भाजपा उत्तर भारत के कई राज्यों में चुनाव हार गई लेकिन, गुजरात भगवा गढ़ बना रहा। हिंदुत्व की मूल प्रयोगशाला, जिसके राजनीतिक विमर्श को उन्हीं ताकतों ने आकार दिया, जिन्होंने राम जन्मभूमि आंदोलन का नेतृत्व किया।

याद रहे कि मोदी  ने 1990 में सोमनाथ से शुरू होकर गुजरात से गुजरने वाली रथयात्रा के पहले हिस्से की योजना बनाई थी। मंदिर आंदोलन के वैचारिक शुभंकर और नेता लाल कृष्ण आडवानी  ने गांधीनगर को अपना संसदीय क्षेत्र चुना और इस तरह भाजपा व गुजरात के मजबूत रिश्ते की पुन: पुष्टि की। राम शिला पूजन में भाग लेने वाले कई कार सेवक भी गुजरात के थे। विश्व हिंदू परिषद का गुजरात में प्रभुत्व था। गुजरात स्थित इसके नेता प्रवीण तोगड़िया कभी राज्य में सबसे प्रभावशाली व्यक्ति थे। विश्व हिंदू परिषद के कार्यकर्ताओं ने ही गोधरा ट्रेन अग्निकांड का बदला लेने के लिए खौफनाक गुजरात दंगों का नेतृत्व किया था। और किसी राज्य में भाजपा ने ‘कट्टर’ हिंदुत्व की राजनीति इतने खुले तौर पर नहीं आजमाई, जिसमें मुस्लिमों का डर दिखाकर हिंदू वोट लामबंद करने पर जोर दिया गया। 2017 भी अलग नहीं है। भाजपा चाहे ‘विकास’ और ‘गुजरात मॉडल’ की ऊंची-ऊंची बातें करे पर जमीन पर हमेशा धार्मिक पहचान को हवा देने का प्रयास करती है। यदि ऐसा नहीं है तो मुख्यमंत्री विजय रूपाणी ने मतदाताओं को कांग्रेस राज आने पर ‘लतीफ राज’ (लतीफ एक गैंगस्टर था जिसे 1980 और 1990 के दशकों में नेताओं ने संरक्षण दिया था) आने की चेतावनी क्यों दी? क्यों भाजपा अध्यक्ष अमित शाह  ने भावनगर में रोहिंग्या मुस्लिमों का मसला उठाया? और क्यों प्रधानमंत्री मोदी कांग्रेस नेता मणिशंकर अय्यर को उद्‌धृत करते हुए ‘औरंगजेब राज’ का उल्लेख करेंगे? क्यों भाजपा के स्थानीय नेता युवा विपक्षी नेता हार्दिक पटेल, अल्पेश ठाकोर और जिग्नेश मेवाणी का ‘हज’ के नाम से उल्लेख करते हैं या मतदाताओं को याद दिलाते हैं कि अहमद पटेल ‘मियां’ हैं?

भाजपा की हिंदुत्व अपील की ताकत के कारण ही कांग्रेस को गुजरात में ‘धर्मनिरपेक्ष मूल्यों’ के लिए खड़े होने का दिखावा भी छोड़ना पड़ा है। कांग्रेस का कोई नेता एक और हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण के डर से 2002 के दंगों का उल्लेख करने की हिम्मत तक नहीं कर सकता। राहुल गांधी जो मंदिर-मंदिर घूम रहे हैं उसके पीछे यही संदेश है कि कांग्रेस ‘हिंदू विरोधी’ पार्टी नहीं है जैसा कि भाजपा ने अब तक सफलतापूर्वक उसका चित्रण किया है। यह तो लगभग ऐसा ही हुआ कि अपने घेटो में धकेल दिए गए और अदृश्य सीमा-रेखा के भीतर रहने वाले राज्य के दस फीसदी मुस्लिमों का उसकी राजनीति में कोई महत्व नहीं है। पिछली गुजरात विधानसभा में सिर्फ दो मुस्लिम विधायक थे। मजे की बात है कि जहां गुजरात में ‘राष्ट्रवादी ताकतों’ को खारिज करने की अपील करने वाले आर्चबिशप विवादित हो गए, वहीं स्वामी नारायण पंथ के प्रमुख भाजपा के मंच पर दिखने और अनुयायियों से भाजपा के पक्ष में मतदान करने को कहने पर चुप्पी है। अन्य राज्यों में चाहे हिंदू धार्मिक दक्षिणपंथ को ‘फ्रिंज’ यानी हाशिए पर मौजूद गुट कहा जाता है वहीं गुजरात में अनुयायियों की विशाल संख्या वाले धार्मिक नेता प्राय: राजनीतिक विमर्श के केंद्र में रहे हैं।

इसके बावजूद गुजरात भर में बदलाव की हवा बह रही है, जिसने इन चुनावों को असाधारण बना दिया है। ऐसे चुनाव जो राज्य ने लंबे समय से देखे नहीं हैं। पाटीदारों के लिए आरक्षण की बढ़ती मांग और युवा पटेल नेतृत्व का दबाव संकेत है कि एकजुट ‘हिंदुत्व’ की पहचान की धारणा में धीरे-धीरे दरार पड़ रही है। जीएसटी को नरम बनाने की मांग व्यापारियों के गुस्से का द्योतक है, क्योंकि जीएसटी को ऐसे राज्य के व्यवसाय चक्र में सरकार का भारी दखल माना जा रहा है, जहां ‘धंधो’ ही सबकुछ है। जब सौराष्ट्र के किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाने की मांग करते हैं, जब अहमदाबाद के छात्र निजी संस्थानों में ऊंची फीस का विरोध करते हैं, जब सूरत के व्यवसायी कहते हैं कि गांधीनगर में बिना रिश्वत के कोई काम नहीं होता तो वाकई लगता है कि अब गुजरात को हिंदू-मुस्लिम के शोर से नहीं बहकाया जा सकता। मतदाता के बढ़ते मोहभंग के चलते 22 साल के लगभग अबाधित भाजपा राज के बाद आखिरकार एक हद तक सत्ताविरोधी रुख दिखाई देने लगा है।
यही कारण है कि भाजपा गुजरात में अपना ‘ब्रह्मास्त्र’ इस्तेमाल करने पर मजबूर हुई- गुजरात की माटी के पुत्र के रूप में मोदी का आकर्षण, जो गुजराती गौरव का प्रतीक हैं। प्रधानमंत्री का करिश्मा चाहे किनारे से खत्म हो रहा हो पर वे व्यावहारिक गुजराती के लिए अब भी चुंबक की तरह हैं। वह केंद्र में ऐसी सरकार होने के फायदे समझता है, जिसकी गांधीनगर के प्रति शत्रुता न हो। खासतौर पर शहरी गुजराती मोदी को एक और अवसर देने को तैयार है, जिसके कारण पार्टी अपने मजबूत संगठन के साथ अब भी चुनाव जीत सकती है। लेकिन, वह चुनाव जीतती भी है तो उसे समझना चाहिए कि धीरे-धीरे राजनीतिक विमर्श पर उसका प्रभुत्व कमजोर पड़ रहा है। हार्दिक पटेल जैसे नेता बड़ी भीड़ खींच रहे हैं, जो बताता है कि युवा गुजराती मतदाता का समर्थन मानकर नहीं चला जा सकता। इन मतदाताओं के लिए जॉब जाना और आर्थिक स्थिति का महत्व उस ‘हिंदुत्व’ के अहसास से अधिक महत्वपूर्ण है, जिसे राजनीतिक वर्ग ने भुनाने की कोशिश की है। अगली पीढ़ी का यही वोटर -जिनमें से कई लोगों ने तो राज्य में भाजपा के अलावा किसी और की सरकार ही नहीं देखी है- सरकार से असुविधाजनक प्रश्न पूछ रहे हैं। बाबरी विध्वंस के 25 साल बाद राजनीतिक नफरत की राजनीति का हिंदुत्व राजनीति के मूल घर में उलटा असर हो सकता है।
पुनश्च : सूरत टैक्सटाइल मार्केट में व्यापारियों के एक समूह ने मुझे बताया कि कैसे सरकार ने उन्हें ‘नोटबंदी’ और ‘जीएसटी’ पर धोखा दिया। फिर मैंने पूछा कि आप किसे वोट देंगे। ‘वोट तो भाजपा को ही देंगे, दूसरा विकल्प कहां है।’(ये लेखक के अपने विचार हैं।)

साभार- दैनिक भास्कर