आजादी से पहले ये थे भारत के सबसे काबिल और बेहतरीन वित्तमंत्री

फरवरी का महीना आते ही साल भर का हिसाब-किताब शुरू हो जाता है. सरकार भी बही-खाता खोलकर बैठ जाती है और वित्त मंत्री बजट के जरिये आने वाले साल में होने वाले खर्चे और निवेश को लेकर अपने इरादों को जनता के सामने रखते हैं. लेकिन क्या बजट का यह चलन सदियों से ऐसे ही चला आ रहा है. या फिर पहले मामला कुछ और हुआ करता था. यहां सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर सरकारी वित् का संचालन पहले कैसे हुआ करता था?

आगे बढ़ने से पहले बता दें कि बजट  शब्द एक पुराने फ्रेंच शब्द से लिया गया है, जिसका मतलब है छोटा सा बैग. शायद उस वक्त एक छोटे से बैग में पूरी दौलत समा जाती होगी या फिर उस वक्त के मंत्री एक छोटे से बैग में अपनी अहम घोषणाओं को लपेटकर लाया करते होंगे. खैर, अब इस छोटे से बैग की जगह उस सूटकेस ने ले ली है जो बजट से पहले वितमंत्री के हाथ में नज़र आता है.

वैसे आज़ाद भारत से भी पहले की बात की जाए तो आधुनिक इतिहास में अकबर के नौ रत्नों में से एक राजा टोडरमल को अनाधिकारिक तौर पर पहला वितमंत्री कहा जाता है. उस दौर में कैलेंडर अलग हुआ करते थे, लेकिन अभी की तरह तब भी साल भर के राजस्व और व्यय का हिसाब जनता दरबार में रखा जाता था. इसी तरह के दरबार में अकबर के शासनकाल के वित्तमंत्री राजा टोडरमल, भूमि सुधार कार्यक्रम लेकर आए थे. टोडरमल ने ज़मीन को मापने की पहल की थी. ज़मीन और फसल मापने की जरूरत राजस्व और कर के नए तरीके लाने की वजह से खड़ी हुई थी. सदियों से अनाज उत्पादन राजस्व का अहम जरिया होता आया है.

बतौर वित्तमंत्री राजा टोडरमल ने राजस्व का नया तरीका ईजाद किया जिसे ‘ज़ब्त’ या ‘दहशाला’ के नाम से जाना जाता है. इसके तहत टोडरमल ने पिछले दस साल में फसल की पैदावार और उसकी कीमत का औसत निकालना शुरू किया. इसके आधार पर हर फसल की कीमत पहले से ही तय कर ली जाती थी, जिसका एक चौथाई कर या टैक्स के तौर पर देना पड़ता था. इस कर का भुगतान नकदी में ही करना होता था.

राजस्व का यह तरीका उन्हीं इलाकों में लागू किया गया जहां मुग़ल शासन था. ज़मीनों को उनकी उत्पादन क्षमता के हिसाब से श्रेणीगत किया गया, ताकि उसी पैमाने से कर लागू किया जाए और किसी गरीब किसान पर अतिरिक्त भार न पड़े. इस व्यवस्था को कायम रखने का काम पटवारी करते थे जो कि आज भी प्रचलित है.

ऐसा भी नहीं है कि पहले के दौर में पब्लिक अकाउंटिंग का अर्थ सिर्फ कर वसूली तक ही सीमित था. लोक-लेखा की बात जब होती है, तब शेर शाह सूरी का नाम भी याद किया जाता है. 1538 से 1545 तक उत्तर भारत पर सूरी साम्राज्य का दबदबा रहा. अकबर से पहले राजा टोडरमल ने शेर शाह सूरी के राज्यकाल में ही अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किया था. दहशाला का खाका भी शेर शाह सूरी के वक्त ही खींच दिया गया था, जिसे अकबर के दौर में अमली जामा पहनाया गया.

शेर शाह सूरी को सरकारी वित्त के सही इस्तेमाल के लिए जाना जाता है. एशिया की सबसे लंबी और पुरानी सड़क में से एक ग्रांड ट्रंक रोड का श्रेय सूरी को ही दिया जाता है. राजस्व का इस्तेमाल सड़क जैसी मूलभूत जरूरत के निर्माण में करने के लिए शेर शाह सूरी को याद किया जाता है. चुंगी या टॉल टैक्स का मौजूदा रूप दरअसल सूरी की ही देन है.

वस्तु विनिमय (बार्टर) की जगह नगदी लेन देन की व्यवस्था के लिए भी शेर शाह सूरी के दौर का नाम है. रुपया भी सूरी की ही देन है. पहले ‘रुपया’ शब्द किसी भी तरह के चांदी के सिक्के के लिए इस्तेमाल होता था. लेकिन सूरी साम्राज्य के दौर में रुपया, उस चांदी के सिक्के के लिए इस्तेमाल होने लगा जिसका वजन 11.53 ग्राम का हुआ करता था. मोहुर नाम के सोने का सिक्का (169 ग्रेन) और पैसा कहे जाने वाले तांबे के सिक्के भी सूरी सरकार के दौरान ही ढाले गए. सूरी साम्राज्य की यही सिक्का प्रणाली मुगलों ने भी जारी रखी.

ब्रिटिश राज से पहले भी भारत में रक्षा मामलों पर सबसे ज्यादा खर्च करने का प्रावधान था. शेर शाह सूरी से लेकर अकबर और उनके आगे के दौर में भी बजट का 40 प्रतिशत हिस्सा रक्षा क्षेत्र के लिए रखा जाता था. जाहिर तौर पर उस दौर में युद्ध की संभावनाएं ज्यादा हुआ करती थीं और यह प्रचलन भारत की आजादी के बाद भी काफी वक्त तक चलता रहा.

1962 में, जब भारत-चीन युद्ध हुआ था, उस साल जीडीपी का 1.59% प्रतिशत रक्षा को आवंटित किया गया था. लेकिन युद्ध की इस मार को झेलने के बाद अगले 30 साल बाद तक लगातार जीडीपी का 3 प्रतिशत हिस्सा रक्षा क्षेत्र को दिया जाता रहा. पिछले साल रक्षा बजट 2.74 लाख करोड़ था, जो कि रक्षा मामले के जानकारों के मुताबिक फीसदी के लिहाज़ से यह अभी तक का सबसे कम बजट आवंटन रहा.

(इस खबर को न्यूज़ 18 से लिया गया है)