सदियों से दलित समाज शोषित रहा है और आज भी हालात बहुत ज़्यादा बदले नहीं हैं । पढ़ने लिखने के बावजूद दलितों समाज के लोगों को सबसे निचले दर्जे के काम करने के लिए कहा जाता है । तमाम दावों के बीच दलितों पर उनके पुश्तैनी काम करने का दवाब बनाया जाता है ।
इसका ताज़ा उदाहरण है कोयम्बटूर की एक सरकारी संस्था ‘कोयम्बटूर टेक्सटाईल कॉरपोरेशन’ का विज्ञापन। संस्था ने अपने यहां नौकरी के लिए निकाले गए विज्ञापन में अनुसूचित जाति के उम्मीदवारों को सिर्फ जमादार और चपरासी की नौकरियां ऑफर की हैं। कॉरपोरेशन ने अपने विज्ञापन मे कहा है कि 50 अनुसूचित जाति के ऐसे उम्मीदवारों की आवश्यकता है जो अपने पुश्तैनी काम मैला ढोना, जमादार, चपरासी आदि के लिए इच्छुक हों।
सरकारी संस्था का कहा है कि ऐसा उसने सरकार के आदेशानुसार ये किया है। ये आदेश वर्ष 2000 में पारित किया गया था क्योंकि जूनियर एसिस्टेन्ट और बिल टैक्स कलेक्टर की नौकरी के लिए न्यूनतम योग्यता दसवीं तथा टाईपिंग स्किल होना अनिवार्य है।
हालांकि प्रश्न ये उठता है कि जब अनुसूचित जाति के लोगों में इस अर्हता को पूर्ण करने वाले लाखों छात्र उपस्थित हैं, तो उन्हें एक विशेष कार्य से संबधित नौकरी के लिए ही क्यों बुलाया जा रहा है ।
एमबीए की पढ़ाई करने वाले सुरेश कुमार पूर्वी कोयम्बटूर के सिगांनाल्लुर इलाके में रहते हैं। सुरेश ने अपनी एमबीए की पढ़ाई 3 लाख का लोन लेकर पूरी की । लेकिन बावजूद एमबीए पोस्ट ग्रेजुएट होने के, वो किसी भी सरकारी और गैर-सरकारी कंपनी में नौकरी नहीं पा सके। सुरेश कहते हैं, ‘हर सुबह मैं बहुत दुखी महसूस करता हूं, जब एमबीए कर लेने के बावजूद मुझे सड़कें साफ करने के लिए घर से बाहर निकलना पड़ता है।”
इसी घटना के सम्बन्ध में तमिलनाडू सैनेटरी वर्कर्स एसोसिऐशन के जनरल सेक्रेटरी आर. सेलवम से बात करने पर उन्होंने बताया कि ”कॉरपोरेशन नहीं चाहती की अनुसूचित जाति के लोग दूसरी जाति के लोगों की तरह तरक्की करें। वो चाहते हैं कि दलित लोग अपने पुश्तैनी काम को ही करते रहें। जो सदियों से उनपर थोपा जाता रहा है।”
बहुत से दलित युवा अच्छी पढ़ाई लिखाई करने के बावजूद अपने पुश्तैनी काम को करते हैं क्योंकि वो उनकी मजबूरी है, उन्हें जब कोई अच्छी नौकरी नहीं मिलती है तो वो जीविका चलाने के लिए सदियों से करते आ रहे काम का ही रास्ता चुनते हैं ।