सरकार ने मुस्लिम महिलाओं के अधिकार की सुरक्षा के फरेबी नाम से जो कानून बनाया है, यह उम्मीद के मुताबिक है। भाजपा नफरत के जिस एजेंडे को अपने सत्ता के जिए अपनाये हुए है, यह उसी का एक हिस्सा है और ज़ाहिर है भारत के सभी मुसलमानों के लिए यह बेहद ही अफसोसनाक और दुखद घटना है।
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6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद शहीद की गई और इस्लामी शरीअत की जो इमारत इस देश में हमारे बुजुर्गों ने बनाई थी, 28 दिसंबर 2017 को उसके एक हिस्सा को गिरा दिया गया। मुसलमान उस समय भी बाबरी मस्जिद की शाहदत को बेबसी के साथ देखते रहे और इस ताज़ा घटना पर भी उनके सामने बेकसी व बेचारगी के साथ देखने के अलावा कोई चारा नहीं था।
यह बात किस कदर अजीब है कि आप जिस वर्ग के लिए कानून बनाएं, उससे कोई मशवरा न करें और इतने अहम कानून को एसी जल्दबाजी के साथ पास कर दें कि उसी दिन सदन में बिल पेश हो, उसी दिन बहस हो और उसी दिन मतों से पास कर दिया जाए। इन हालात में इस बात पर गौर करना चाहिए कि शरीअत से संबंधित मुसलमानों का रणनीति क्या हो, इस सिलसिले में कुछ बातें अहम हैं:
तलाक़ बहरहाल न पसंदीदा कार्य है , खासतौर से एक साथ तीन तलाक देना गुनाह और नाजायज़ है, फुकहा इस पर सहमत हैं और न हो कि रसूल सअ को इस पर बहुत गुस्सा होते हुए देखा गया। इसिये मुस्लिम समाज में तीन तलाक का एक घटना भी पेश आए तो यह नफरत के काबिल है, और किसी मुनासिब वजह से के बगैर तलाक के कुछ घटना भी पेश आए तो इसपर सलाह व मशवरा किया जाए।
पति पत्नी के झगड़े को हल करने के लिए ज्यादा से ज्यादा “कोंस्लिंग सेंटर” स्थापित किए जाएँ, जिस में एक आलिम यह जरूरी हद तक सेंटर मस्जिद, मदरसों और धार्मिक संगठनों के निगरानी में कायम किए जा सकते हैं। सुलह की अहमियत फैसले से बढ़ कर है।
हम शरीअत के दुसरे मुद्दे अपने बच्चों और बच्चियों को पढ़ाते हैं, नमाज़, रोज़ा के अहकाम बताते हैं, जकात की अदायगी और हज करने के तरीके सिखाते हैं: लेकिन कभी उनको शादी शुदा जिंदगी में पेश आने वाले मुद्दे के बारे में नहीं बताते। आलिम व खतीब तलाक के घटना कम करने में अहम किरदार अदा कर सकते हैं। अज कल अक्सर मस्जिदों में जुमा से पहले बयान होता है, दीनी मदरसों के बड़े सालाना जलसे आयोजित किए जाते हैं। इसमें कोशिश होनी चाहिए कि इस्लाम की शिक्षा को जिंदगी के हर पहलू के सिलसिले में मुस्लिम जनता को जागरूक किया जाये।