इस्लाम में शादी दो दिलों का एग्रीमेंट है और तलाक़ औरतों की आज़ादी

शादी असल में दो दिलों का एग्रीमेंट है। अगर दो रूह मिल जाती है, मिज़ाज मिल जाता है, तौर-तरीके मिल जाते हैं तो ज़िंदगी ख़ुशगवार हो जाती है। अगर इस एग्रीमेंट में मिज़ाज नहीं मिल पाता है तो पसंद नहीं मिल पाता है। तब मसाइल पैदा होते हैं और पति और पत्नी के बीच आपसी रंजिश बढ़ती है।

इसके हल के लिए काऊंसलिंग की जाती है। तदबीरें की जाती हैं और सब तदबीरें जब उल्टी पड़ जाती है तब कुछ काम नहीं आता। बस इसका आख़िरी हल जुदाई रह जाता है जिसको शरीयत-ए-मुतह्हरा यानी इस्लामी क़ानून में तलाक़ कहा जाता है।

इसका उल्लेख इमाम-उल-हिंद मौलना आज़ाद ने यूं फ़रमाई है निकाह का मक़सद यह हरगिज़ नहीं है कि एक मर्द या एक औरत किसी एक के गले पड़ जाए। और न ही यह है कि औरत को मर्द की ख़ुदगर्ज़ी ज़िंदगी का सामान बना दिया जाए। निकाह का असल मक़सद यह है कि इससे एक अच्छा और ख़ुशहाल ज़िंदगी का आग़ाज़ हो। और ऐसी ज़िंदगी तभी हो सकती है जब आपस में मुहब्बत, रज़ामंदी और परिस्थितियों के अनुकुल हो। अगर ख़ुदा नख़्वास्ता ऐसा न हुआ तो निकाह का असल मक़सद फ़ौत यानी खत्म हो जाना रह जाता है। तब यब ज़रूरी हो जाता है कि पति-पत्नी के लिए तब्दीली का दरवाज़ा खोल दिया जाए। अगर निकाह ख़त्म हो जाने के बाद मर्द और औरत को अलग होने का हक़ न दिया जाए तो यह इंसानी हुक़ूक़ के साथ नाइंसाफी होगी।

7वीं सदी ईसवी में जब इस्लाम का आगमन हुआ तब दुनिया इस हक़ीक़त से बिलकुल अंजान थी कि मर्दों की तरह औरतों के भी हुक़ूक़ हो सकते हैं। इस्लाम से पहले दुनिया के के दूसरे धर्मों में तलाक़ के मामले में बड़ी कमियां और ज़्यादतियां नज़र आती हैं। यहूदीयों के यहां तलाक़ की कोई क़ानून नहीं था। वहां मर्द जब चाहे, जिस तरह चाहे तलाक़ देकर छुटकारा कर ले।

यहूदियों की किताब तल्मूद यानी तौरात के मुताबिक, तलाक़ के लिए बस एक तलाक़नामा लिखकर बीवी के हाथ में थमा दे और तलाक़ वाक़्य हो जाएगी। मर्दों के इस आज़ादी के विपरित ईसाई मज़हब में तलाक़ की गुंजाइश ही ख़त्म कर दी गई। बतौर बाइबल के शब्दों में, “जिसे ख़ुदा ने जोड़ा उसे आदमी जुदा ना करे और जो पहली बीवी को छोड़ दे और दूसरी शादी करले तो समझो उसने पहली से दुष्टकर्म किया। और औरत अगर मर्द को छोड़ दे और दूसरी शादी कर ले तो समझो ज़ना करती है।”

आगे चलकर इस सख़्ती का मतलब ये निकला गया कि ईसाई समाज में दूसरी शादी या तलाक़ का तसव्वुर ही खत्म हो गया। लेकिन नाजायज़ रिश्ते ख़ूब परवान चढ़े। फिर इसके बाद जब इस सख़्ती से ज़िंदगी पहाड़ बनने लगी तब प्रोटेस्टेंट फ़िर्क़ा में तलाक़ की इजाज़त दे दी गई। मगर कुछ शर्तों के साथ। पहले अदालत में किसी भी फ़रीक़ को गवाह से दूसरे फ़रीक़ का अपराध साबित हो जाए।

वहीं दूसरी तरफ हिंदू, यूनानी और रोमन समाज में तलाक़ का तसव्वुर नहीं रहा था। मनु के कानून में औरत की हस्ती को सिर्फ इस तरह देखा था कि वो मर्द के बच्चे पैदा करने का ज़रीया है। औरत का धर्म केवल मर्द की ख़िदमतगुज़ारी में अपनी ज़िंदगी ख़त्म देना है। या फिर शौहर के गुज़र जाने की सूरत में उसके साथ चिता पर लेट जाए और स्वर्गवासी बन जाए।

वैदिक काल को छोड़ दीजिए, आज़ाद हिंदूस्तान में हिंदुओं में तलाक़ का कोई तसव्वुर नहीं था। यह आज़ादी के बाद 1956 में हिंदू मैरिज बिल पास हुआ इसके बाद हिंदू औरतों को जायदाद और तलाक़ का हक़ मिला। लेकिन पवित्र क़ुरान ने चौदह सौ बरस पहले ये ऐलान कर दिया था कि हुस्न-ए-सुलूक में बीवीयों के हुक़ूक़ भी मर्द पर ऐसे ही है जैसे पति के पत्नी पर। इसने इंसानी समाज में सबसे बड़ा इंकलाब का ऐलान कर दिया। उसके बाद गड़ी पड़ी औरत को ख़ाक से उठाकर इज़्ज़त के तख़्त पर बिठाया गया।

इस्लाम में इंसानी मिज़ाज का पूरा ख़्याल रखा गया। शौहर और बीवी के दरमियां मिज़ाज न मिलने की सूरत में और ज़िंदगी जब मुश्किल होने लगे तो आख़िरी ईलाज ये बताया गया कि दोनों हंसी-ख़ुशी निकाह को ख़त्मकर एक-दूसरे से अलग हो जाए। इसके लिए किसी कोर्ट कचहरी के चक्कर लगाने, वक़्त बर्बाद करने, तमाशा बनाने या एक दूसरे पर इल्ज़ाम धरने, वकील के सामने झूटी सच्ची क़समें खाने और समाज और ख़ानदान का मज़ाक़ बनाने की ज़रूरत नहीं है। बस तीन इद्दत में तीन तलाक़ देकर ऐसे ही आसानी से जुदा हो जाया जा सकता है। मसलन एक जुमला ‘क़बूल’ है कहकर शादी के बंधन में बंध गए थे। लेकिन तलाक़ को भी यूंही यहूदीयों धर्म की तरह बिलकुल आज़ाद नहीं छोड़ा गया। बल्कि उसके लिए बहुत सारी शर्तें रखी गईं जिससे होकर मर्द और औरत को गुजरना होता है।

हनफ़ीह मशलक के नज़दीक तलाक़ की तीन किस्में है- तलाक़ अहसन, तलाक़ हसन और तलाक़ बिद्दत। तलाक़ अहसन यह है कि बीवी को एक तलाक़ दी जाए और फिर हैज़ (माहवारी) की तीन मुद्दत के गुज़र जाने का इंतिज़ार किया जाए। इस दर्मायान बीवी शौहर के घर ही रहे। लेकिन इस दौरान पति पत्नी से जिंसी राबिता नहीं रख सकता, जब तक कि इस से तलाक़ से रुजू न करले यानी तलाक़ वापिस न ले ले।

जैसाकि क़ुर’आन में कहा गया है: “ए नबी आप लोगों से कह दीजिए कि जब तुम औरतों को तलाक़ देने लगो तो उनकी इद्दत पर तलाक़ दो और इद्दत को ख़्याल रखो। और अपने परवरदिगार से डरते रहो। उन्हें (पत्नी) उनके घर से न निकालो। और न (वो) ख़ुद निकलें। बावजूद उसके कि वो बे-हयाई न करें। ये अल्लाह की मुक़र्रर की हुई हदें हैं जो कोई अल्लाह के हद को पार करेगा उसने समझो अपने ऊपर ज़ुल्म किया। तुम्हें ख़बर नहीं कि अल्लाह शायद इस कोई नई बात पैदा कर दे (सूरा तलाक़:१)

इसी तरह तलाक़ हुस्न में भी मर्द तीन महीना इंतिज़ार करेगा लेकिन इस दरम्यान वो हर महीने हैज़ (माहवारी) से पाक होने के बाद उसे एक तलाक़ देगा तीसरी इद्दत में ख़ाह वो तलाक़ दे या न दे अगर इद्दत गुज़र गई और उसने रुजू (वापसी) नहीं लिया तो तलाक़ हो जाएगी।

तलाक़ की एक तीसरी किसम है तलाक़ बिद्दत, जिसे सबसे अधिक नापसंद किया गया है। इसमें एक मर्द अपनी औरत को एक साथ तीन तलाक़ दे दे तो ऐसी सूरत में अहनाफ़ (हनफ़ी मसलक) के नज़दीक तलाक़ हो जाएगी। ख़लीफ़ा हज़रत उमर के पास जब भी तलाक़ से जुड़ा मामला आता तो वो ऐसे शख़्स की पीठ पर कोड़े लगाते थे और तलाक़ लागू कर देते थे। इसलिए तलाक़ का पहला दो तरीक़ा हसन और अहसन ही उल्माओं और इस्लामी स्कॉलर्स के नज़दीक सही माना गया है। वहीं तलाक़ बिद्दत को बेहद निन्दनीय और कुर’आन विरोधी माना गया है।

अब्दुल क़ादिर सिद्दीक़ी, रिसर्च स्कॉलर मौलाना आज़ाद नैशनल उर्दू यूनिवर्सिटी, हैदराबाद