करीब छह दशक तक तमिलनाडु की सियासत के केंद्र बिंदु रहे डीएमके प्रमुख एम करुणानिधि बुधवार शाम मरीना बीच पर चिरनिद्रा में सो गए। करुणानिधि को उनके गुरु अन्नादुरई के समीप पूरे राजकीय सम्मान के साथ समाधि दी गई। करुणानिधि को मरीना बीच पर दफनाने को लेकर विवाद था।
डीएमके की याचिका पर मद्रास हाईकोर्ट में आधी रात को सुनवाई हुई, हालांकि कोर्ट ने मामले को सुबह 8 बजे तक के लिए स्थगित कर दिया था। दरअसल, डीएमके ने करुणानिधि के निधन के बाद मरीना बीच पर उन्हें दफनाने के लिए जमीन की मांग की थी तो तमिलनाडु सरकार ने मरीना बीच पर जगह देने से इनकार कर दिया था जिसको लेकर इस मामले पर सियासी उठापटक शुरू हो गई थी।
अन्नाद्रमुक और द्रमुक की जीते जी तो कटटर दुश्मनी रही लेकिन डीएमके पार्टी के मरने के बाद भी यह दुश्मनी देखने को मिली। करुणानिधि को हिन्दू विरोधी कहा जाता था जबकि ऐसा नहीं था।
करुणानिधि और एमजीआर तमिलनाडु की सियासत के अहम स्तंभ रहे हैं। वे दोनों इस दुनिया में अब नहीं हैं, लेकिन कभी दोनों की दोस्ती की मिसाल दी जाती थी जो दुश्मनी में बदल गई थी।
करुणानिधि के शब्दों और विचारों से प्रेरित होकर एमजीआर 1953 में कांग्रेस छोड़कर डीएमके में आ गए। एमजीआर ने तमिलनाडु के सिनेमा-प्रेमी मतदाताओं को डीएमके के समर्थन में ला दिया। करुणानिधि को एक करिश्माई और प्रभावशाली दोस्त मिला।
हालांकि एमजीआर करुणानिधि से सात साल बड़े थे, लेकिन देखने में करुणानिधि बड़े लगते थे। करीब 30 साल पहले करुणानिधि और एमजीआर गहरे दोस्त हुआ करते थे। करुणानिधि अपनी राजनीति के तो एमजीआर अपने अभिनय क्षेत्र के संघर्ष एक दूसरे से साझा करते थे।
यह 1950 की बात है, जब करुणानिधि की स्क्रिप्ट ‘मंतिरी कुमारी’ ने एमजीआर को बड़ी सफलता दी। युवा लेखक करुणानिधि को अपनी योग्यता से नाम, मिश्रित विचारधारा और व्यावसायिक सफलता मिली और एमजीआर एक बड़े ऐक्टर हो गए।