भीड़ हिंसा पर यह दोहरा मापदंड: सरकार इसको खत्म करना चाहती है या बढ़ाना

भीड़ हिंसा पिछले कुछ सालों में भारत के लिए एक राष्ट्रीय बीमारी बनकर उभरा है। हम धीरे धीरे एक ऐसा देश बनते जा रहे हैं जिसके नागरिक बेहद गुस्से में हैं और जरा सी उकसाने पर किसी को भी मौत के घाट उतार देने के लिए हर समय तैयार रहते हैं। अफ़सोस कि ‘जानकारी के धमाके’ वाले इस दौर में असल और सकारत्मक जानकारी पर गलत और झूठी जानकारी का धमाका “धमाका” ग़ालिब आता जा रहा है।

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झूठी खबरों और सूचना यानी अफवाहों ने एक तरह की साइबर आतकंवाद को जन्म दिया है जिसमें लिप्त लोगों के अपने उट पटांग औचित्य हैं। झूठी खबरों, झूठे प्रोपगंडे और अफवाहों ने सच्चाई पर जीत हासिल करनी शुरू कर दी है।

एक नागरिक की हैसियत से हम इस कदर गैर ज़िम्मेदार और जज्बाती हो चुके हैं कि जज़बात को छू जाने वाली किसी भी सूचना की पड़ताल की जरूरत ही महसूस नहीं करते बल्कि तुरंत आखिरी नतीजे पर पहुंच कर फैसला देने के लिए कानून को अपने हाथ में लेने से पर आमादा हो जाते हैं।