Editorial :उरी हमले से मोदी को एहसास हुआ कि युद्ध कोई वीडियो गेम नहीं है

रविवार अहले सवेरे जम्मू कश्मीर के उरी में सेना के कैंप पर आतंकी हमला हुआ जिसमें सत्रह जव़ान शहीद और करीब तीस घायल हो गए. राजनेता हो या अभिनेता सबने घटना की कड़ी शब्दों में निंदा की और कठोर सज़ा दिलाने जैसे बात कही. लेकिन, प्रधानमंत्री का ये ट्वीट – “We strongly condemn the cowardly attack in Uri. I assure the nation that those behind this despicable attack will not go unpunished.” सोशल मीडिया में चटखारे और ललकारने का विषय बन गया.

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फेसबुक और ट्विटर पर भाजपाई नेताओं के बयान और ट्विट साझा किये जाने लगे जो उन्होंने विपक्ष में होने के दौरान कहा था. मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के बयान प्रधानमंत्री मोदी के बयान को जैसे चिढ़ा रहे थे. उनके चुनावी भाषणों और साक्षात्कार में पाकिस्तान को लेकर उग्रता ‘लव लेटर लिखना बंद करना चाहिए’, ‘एक के बदले दस सिर’ आदि बयानों पर तंज कसे जाने लगे. प्रतिक्रियाओं से प्रतीत होता रहा है कि जनता पाकिस्तान से युद्ध चाहती है, युद्ध से ही पाकिस्तान को सबक सिखाया जा सकता है, युद्ध ही इस आतंकवाद का हल है!

आतंकी पाकिस्तानी थे या नहीं इसकी पुष्टि नहीं हो सकी है. पर, आतंकी थे माने पाकिस्तानी थे जैसी अवधारणा और अभ्यस्तता में अक्सर ऐसा किया जाता है. दरअसल, सोशल मीडिया पर इस तरह की व्यापक रोष़ के प्रणेता नरेंद्र मोदी खुद हैं. चुनावी भाषणों के दौरान पाकिस्तान को ललकारना और भीड़ की तालियाँ बटोरना जो कभी छवि गढ़ रहा था, आज दोहरेपन का उदाहरण बनता जा रहा है.

आतंकवाद में पाकिस्तान की संलिप्तता साबित होती रही है पर, भाजपाई नेताओं ने जिस कदर अपने आलोचकों, निंदकों और विरोधियों के लिए पाकिस्तान भेजो अभियान छेड़ा उससे ‘पाकिस्तान’ या ‘पाकिस्तानी’ शब्द भारत में अपमानसूचक और गाली सा बनता चला गया. इसमें मीडिया की भी बड़ी भूमिका रही है. मीडिया में फ़र्जी बाइनरी और दर्शकों को बर्गालने का कुकर्म बदस्तूर जारी रहा. जेएनयू के छात्रों और वहाँ के लिबरल स्पेस की तुलना सियाचीन के हनुमनथप्पा से करके विमर्श के मूल को खत्म करने की कोशिशें भी की गई हैं.

ऐसे में यह समझना अहम बन जाता है कि सोशल मीडिया पर मौजूदगी दर्ज़ कराती भारतीय जनता युद्ध के विभत्स रूप को लेकर व्याकुल ना होकर रोमांचित क्यों होने लगी है? क्यों वो युद्ध और हिंसा का पैरोकार होती जा रही है? गाँधी से तो यह समाज लगभग दूर हो ही चुका है लेकिन, क्या इतना बाव़ला भी हो चुका है कि राजनीतिक चुनौतियों के लिए कूटनीति के ब़जाय बंदूकनीति को विकल्प के रूप में पेश करने लगे?

बेश़क, उरी की घटना राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से अहम है. हमारे जव़ानों की शहादत किमती है. उनके परिजनों के समपर्ण को सलाम है. पर, इस बाब़त हम सरकारों से युद्ध में जाने की अपील शुरू कर दें यह कैसी समझदारी है? आठ जुलाई को बुरहान वाणी के मारे जाने के बाद से कश्मीर में तनावपूर्ण स्थिती अबतक बनी हुई है. सत्तर से ज्यादा लोगों की जानें, करीब दस हजार लोग घायल और करीब चार हजार सेना के जव़ान घयाल हो चुके हैं. ये संख्या तब हैं जब कश्मीर में कोई युद्ध नहीं हो रहा. प्रशासनिक हिंसा और जनता के प्रतिकार या जनता द्वारा हिंसा और प्रशासन का प्रतिकार का नतीजा कह सकते हैं. हालांकि, इसके ऐतिहासिक संदर्भ को दरकिनार नहीं किया जा सकता और वो भी तब जब हालात बेहद खराब हैं. स्थितीयाँ बाहर से प्रायोजित कम, अत्याचार और बर्बरता के बीच पली-बढ़ी आबादी के प्रतिकार का नतीज़ा है.

बहरहाल, युद्ध कोई विडियो गेम तो है नहीं जिसे फटाफट रिबूट किये और शुरू हो गए. आज सत्रह सैनिकों की शहादत के शोक में डूबे हैं युद्ध में संख्या शायद यहीं नहीं रूकेगी. दोनों तरफ व्यापक जानमाल का नुकसान होगा, सिमाओं पर विस्थापन होगा, रोजगार जाएगी, जीवनयापन प्रभावित होगा, राज्य के वित्तिय कोष पर अतिरिक्त भार पड़ेगा उसकी जिम्मेदारी क्या सोशल मीडिया के साथी लेंगे? न्यूज़रूम के दंगाई एंकर्स क्या लाहौर इस्लामाबाद में आतंकी ढुंढ-ढुंढ़कर मारेंगें जैसा माहौल वो टीवी के माध्यम से तैयार कर रहे हैं?

भारत-पाकिस्तान युद्धों से कौन सी दशा और दिशा तय हुई है जो फ़िर एक युद्ध का आवाह्न जैसी बातें की जा रही हैं. अग़र हिंसा ही उपाय होता तो कश्मीर में सर्वदलीय बैठकों की क्या जरूरत पड़ती. ग्रीन हंट और सलवा जुडूम अभियानों से नक्सलवाद का खात्मा कर दिया गया होता. पूर्ववर्ती भारत-पाक युद्धों से कश्मीर कोई मसला ही नहीं होता. इतिहास से ही कोई उदाहरण सोचिए जहाँ युद्ध के माध्यम से शांति स्थापित की गई. शायद कहीं भी नहीं.

वैसे, प्रधानमंत्री मोदी को भी जनता के इस उन्मादी प्रवृत्ति पर व्याख्यान देना चाहिए. उन्हें बताना चाहिए जो बातें पाकिस्तान को लेकर विपक्ष में कहना आसान होता है सत्ता में आते ही उसकी क्या जटिलता होती है. जब भाजपा को सत्ता से असहमतियों के स्वर पाकिस्तान प्रयोजित लगते हैं, तो युद्ध की हुंकार दे रहे अपने ही समर्थकों को कैसे समझा पाएंगें. गोरक्षकों द्वारा दलितों अत्याचारों पर ‘पहले मुझे गोली मार दो’ जैसी निह़ायत भावनात्मक बयान को कैसे गंभीर लिया जाए जब खुद उनके विपक्षी और सत्ता के सुर मेल ना खाते हों.

इसलिए, जरूरी है कि राजनेता अपने बयान बेहद संयमित रखे. उन्माद की राजनीति का यह सतत व्यापार उन्हें भी अपना शिकार बनाने में देर नहीं करेगी. प्रधानमंत्री जी, बलूचिस्तान जरूर देखिए लेकिन कश्मीर की किमत पर नहीं. ठीक उसी तरह, नव़ाज शरीफ भी कश्मीर के मानवाधिकार हनन जरूर देखें लेकिन, बलूचिस्तान के किमत पर नहीं. मीडिया लोगों को शिक्षित करने का भी कार्य करे. कोशिश हो कि दशर्कों व पाठकों में शोधपरक नजरिया विकसीत किया जाए. एकतरफ़ा सरकारी खब़रें सरकार की मिट्टीपलित तो करती ही हैं, चैनलों की विश्वसनीयता भी गर्त में जाती है. बेहद ‘भावनात्मक’ जनता और सोशल मीडिया के साथी एके 47 के हिमायती ना बनकर तार्क़िक और संवेदनशील बनें.

रोहिण कुमार

हिन्दी पत्रकारिता
भारतीय जन संचार संस्थान (आईआईएमसी)