कल पूरे भारत की रफ्तार थम कर रह गई, कितने ही शहरों में सडकों पर गाड़ियों की लंबी लंबी कतारें लग गईं। आगजनी, हिंसा, लाथिचार्ज़ और फायरिंग की खबरों के आलावा न्यूज़ चैनलों के पास कुछ दिखाने को नहीं था।
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कल रात तक किसी को भी इस बात का अंदाज़ा नहीं था कि सुबह ऑफिस जाने में इतनी परेशानियों का सामना करना पड़ेगा। भारत बंद का जो नारा दिया गया था उसके पीछे कोई जाना पहचाना दलित चेहरा भी नहीं था जिसको देखकर अंदाज़ा लगाया जा सकता कि वाकई भारत बंद कामियाब होगा या नहीं।
किसी भी शहर में कोई नेता इस आंदोलन का हिस्सा नहीं था मगर क्योंकि नारे में जान थी तो वह सभी दलित निकल पड़े जो पिछले तीन चार साल से घुटन का शिकार हैं। उन्होंने जिस मोदी सरकार को अपना हमदर्द समझकर चुना था उसने उनकी ओर से एसी आँखें फेरीं कि गुजरात से लेकर उत्तर प्रदेश तक और राजस्थान से लेकर मध्यप्रदेश तक हर जगह दलितों पर अत्यचार के पहाड़ टूटने लगे। कहीं मुर्दा गाय का चमडा उतारने वाले दलितों को पीटा गया, कहीं महज़ इस लिए दलित नौजवान को मौत के घाट उतार दिया गया कि उसने घोड़े पर बैठने की हिम्मत की थी।
(आपको बता दें कि मनु स्मृति के पुराने कानून के अनुसार दलितों को उच्च समाज के बस्तियों में इस बात की इजाजत नहीं थी कि वह सवारी पर बैठकर गुजरें)। दलितों का दिल दुखाने के लिए अम्बेडकर और पीरयार की मूर्तियाँ तोड़े जाने का सिलसिला शुरू हुआ, उसकी रोकथाम करने वाला भी कोई दिखाई नहीं देता है। दलित नेताओं अपमान करने वाले को अगर भाजपा ने दीखावे के तौर पर हटाया तो उसकी बीवी को मंत्री बना दिया।