20वीं सदी के शुरुवात में बिहार के हालात सही नही थे। यहां के इलाक़ों पर अंग्रेज़ो ने क़ब्ज़ा कर रखा था, औऱ बिहार बंगाल का हिस्सा था। राजधानी(कलकत्ता) से दूर होने की वजह कर कोई भी सरकारी एदारा यहां नही खोलने दिया जाता था, ना मेडीकल कालेज था, ना ही इंजिनयरिंग कालेज, इसे साजिश कहें या मजबूरी पर हालात बहुत ही बुरे थे।
लोगो को महसूस होने लगा कि बंगाल मे रह कर बिहार तरक़्क़ी नही कर सकता है, तब कुछ सरफ़रोश खड़े हुए जिन्होने बिहार को बंगाल से अलग करने की तहरीक चलाई। 22 साल की मेहनत, महेश नाऱायण की क़ुरबानी, डॉ सिन्हा, सर अली ईमाम की दुरंदेशी, हसन ईमाम, मौलाना मज़हरुल हक़ की जद्दोजेहद की वजह कर 22 मार्च 1912 को बिहार एक ख़ुद मुख़्तार रियासत बन जाता है। कई तालीमी एदारे खुलते हैं, पर अभी तक एक भी सरकारी मेडीकल कालेज वजुद में नही आया था।
इसी दौरान हकीम अजमल ख़ान ने भी आयुर्वेद और युनानी तिब के बचाव के लिए तहरीक चला रहे थे। 1906 में उन्होने आल इंडिया आयुर्वेदिक एंड युनानी तिब कांफ्रेंस कर अंग्रेज़ी हुकुमत को इस बात पर अमादा कर लिया के वो आधुनिक चिकित्सा पद्धती के मुक़ाबले आयुर्वेद और युनानी चिकित्सा पद्धती को किसी भी हाल मे कमतर नही समझें।
मार्च 1915 में दरभंगा महराज की सदारत में एक जलसा आल इंडिया आयुर्वेदिक एंड युनानी तिब कांनफ़्रेंस के नाम पर होता है जिसमें मौलाना आज़ाद, सर फ़ख़्रुद्दीन, सर गणेश दत्त, मौलाना मज़हरुल हक़, हकीम इदरीस साहेब, हकीम रशीदुन्नबी साहेब, हकीम क़ुतुबउद्दीन साहेब, हकीम अब्दुल क़य्युम साहेब, पटना के विधायक मुबारक करीम, अहमद शरीफ़(बार एैट लॉ) जैसे क़द्दावर लोग शरीक होते हैं और हुकुमत ए बिहार से आयुर्वेदिक और युनानी स्कुल खोलने की मांग करते हैं।
फिर इसके बाद शुरु होता है सरकारी मेडीकल कालेज के लिए जद्दोजेहद, मौलाना मज़हरुल हक़ जो उस समय पटना के बड़े वकील थे ने इस तहरीक में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया और माली इम्दाद किया, सर फ़ख़्रुद्दीन और सर गणेश दत्त उस समय की हुकुमत में मंत्री थे।
उन्होने इस तहरीक का समर्थन किया। 10 साल की जद्दोजेहद के बाद कमयाबी हाथ लगी और 1924 में कमिश्नर इस चीज़ पर राज़ी हो गया कि बिहार में ना सिर्फ़ मेडिकल स्कुल खुलेगा बल्कि उसके साथ ही साथ अलग अलग आयुर्वेदिक और युनानी स्कुल भी क़ाएम किया जाएगा।
फिर अगले साल फ़रवरी 1925 में बिहार का पहला मेडिकल स्कुल वजुद में आया, टेंपल मेडिकल स्कूल, जो बाद में प्रिंस आफ़ वेल्स मेडिकल कालेज के नाम से मशहुर हुआ। इसे आज दुनिया PMCH के नाम से जानती है।
इसके एक साल बाद 6-8 मार्च 1926 को हुए आल इंडिया आयुर्वेदिक एंड युनानी तिब कांफ्रेंस के चौदहवें इजलास में हुकुमत के काम की तारीफ़ की गई और उनपर दबाव डाला गया कि जल्द से जल्द आयुर्वेदिक और युनानी स्कूल को वजुद में लाया जाए।
उसी साल इस मुद्दे को लेकर एक कमेटी तशकील की गई जिसकी मीटिंग पटना डिविज़न के कमिश्नर ड.बी. हेकॉक की सदारत में कमिश्नर के आफ़िस में की गई। एस.एन. होदा (आई.सी.एस), हकीम मुहम्मद इदरीस, ख़ान बहादुर सैयद मुहम्मद इस्माईल, हकीम सैयद मज़ाहिर हसन, हकीम अब्दुल करीम इस कमेटी के फ़ाऊंडिंग मेम्बर थे। वहीं एस.एम.शरीफ़(बार एट लॉ) इसके सिक्रेट्री मेम्बर थे।
26 जुलाई 1926 को बिहार का पहला सरकारी आयुर्वेदिक स्कूल वजूद में आया और 29 जुलाई 1926 को ना सिर्फ़ बिहार का बल्की पूरे बर्रे सग़ीर का पहला सरकारी तिब्बी स्कूल पटना में वजूद में आया।
हुकुमत ने इस इदारे के लिए तीन मेम्बर की एक कमेटी बनाई जिसका काम स्टाफ़ का स्लेकशन करना था, हकीम मौलवी मुहम्मद कबीरउद्दीन(दिल्ली), हकीम अब्दुल मजीद ख़ान और हकीम अब्दुल हलीम(लखनऊ) इस कमिटी के हिस्सा थे।
इन तीनो माहीरीनों ने 4 रोज़ तक हर पहलु पर ग़ौर ओ फ़िक्र किया और फिर अपना फ़ैसला सुनाया जिसके नतीजे में हकीम मुहम्मद इदरीस प्रिंसपल बनाए गए। हकीम मज़ाहिर अहमद (मुज़फ़्फ़रपुर), हकीम अब्दुल हई (पटना), हकीम ख़्वाजा रिज़वान अहमद(दिल्ली) को प्रोफ़ेसर बनाया गया।
इसके ढाई साल बाद 20 मार्च 1929 को तीन और लोगों को प्रोफ़ेसर का कार्यभार दिया गया। इस स्कूल के लिए 1927-28 का सरकारी बजट 15164 रु था, स्कुल में डेस्क, कुर्सी और टेबल की जगह चौंकी का उपयोग किया गया।
पटना में तिब्बी स्कुल की अपनी कोई इमारत नही थी, 65 रु हर माह के हिसाब से स्कूल की शुरुआत मरहुम शाह हमीदउद्दीन के घर (होलडिंग न. 40) भिखना पहाड़ी में हुई।
ये स्कूल तक़रीबन आठ साल किराय के माकान में चला, रमना रोड, अंटाघाट से होते हुए ये स्कुल जनवरी 1934 के ज़लज़ले के बाद आख़िरकार क़दम कुंआ में मुक़ीम हुआ, जहां ये आज भी मौजुद है, 1943 में इस स्कुल ने तिब्बी कालेज का रुप लिया।
1930 में चार साला कोर्स मुकम्मल कर 23 लड़कों का पहला बैच फारिग़ हुआ। शुरु में फ़ाज़िल की डिग्री दी जाती थी, फिर जी.यु.एम.एस. की डिग्री दी जाने लगी जो 1983 तक जारी रहा।
इसके बाद 1984 से बी.यु.एम.एस. की डिग्री दी जाने लगी जो अब तक जारी है। 1934 से 1952 तक कालेज द्वारा ही डिग्री दी जाती थी, फिर 1953 से 1972 तक इम्तेहान, डिग्री और रेजिस्ट्रेशन के सारे काम स्टेट फ़ैकल्टी ऑफ़ आयुर्वेदिक एंड युनानी मेडिसीन के निगरानी मे रहा, 1973 में युनिवर्सटी ऑफ़ बिहार मुज़फ़्फ़रपुर में हुकमत ने देसी चिकित्सा पद्धती (आयुर्वेदिक, युनानी एंड होमोपैथ) के लिए अलग फ़ैकेल्टी क़ायम करके तमाम आयर्वेद और तिब्बी कालेज को इसके हवाले कर दिया।
तिब्बी कालेज के प्रिंसपल जनाब “प्रोफ़ेसर मुहम्मद ज़ियाउद्दीन” साहेब बताते हैं के पटना ज़िला के डाक पालीगंज के ग़ौसगंज गांव के रहने वाले अहमद रज़ा क़ुरैशी साहब पहले छात्र हैं जिन्होने इस स्कुल(तिब्बी कालेज) में दाख़िला लिया, जिन्होने साले अव्वल में उर्दु और फ़ारसी ज़ुबान में पढ़ाई शुरु की, वहीं 90 साल के वक़्फ़े में अब तक हज़ारो की तादाद में बच्चे यहां से पढ़ कर फ़ारिग़ हो चुके हैं, इस तवील मुद्दत में यहां से पढ़ कर निकलने वाले बच्चों की तादाद कम हो सकती है, मगर किरदार के एैतबार से वो किसी भी एदारे के मुक़ाबले कम नही हैं” वो आगे बताते हैं :- “1937 में जामिया मिल्लीया के फ़रोग़ के लिए जब डॉ ज़ाकिर हुसैन पटना आए थे तब तालीम के तईं उनके जज़बे को तिब्बी कालेज में उन्हे मेहमान ए ख़ुसुसी बना कर लाया गया और उनके हाथ से बच्चों के बीच सनद (डिग्री) बटवाई गई, उस वक़्त उनके द्वारा दी गई तक़रीर अब भी महफ़ुज़ है, वहीं सितम्बर 1946 में अल्लामा सैयद सुलैमान नदवी (र) ने बच्चों में सनद तक़सीम की, उस वक़्त उनके द्वारा दी गई तक़रीर भी महफ़ुज़ है, 25 मार्च 1952 को अल्लामा हकीम मुहम्मद कबीरुद्दीम द्वारा सनद तक़सीम किया गया था..
जहां आज इस कालेज से पढ़ कर निकलने वाले भारत के अज़ीम लेखक डॉ केवलधीर साहेब(पंजाब) हैं जिन्होने मेडिकल, लिट्रेचर, फ़ैमली प्लानिंग पर तक़रीबन 60 किताबें लिखी हैं, वहीं प्रोफ़ेसर नईम अहमद ख़ान जैसे लोग भी हैं जिन्हे हकीम अजमल ख़ान तिब्बीया कालेज ए.एम.यु. का 4 बार डीन बनने का शर्फ़ हासिल हुआ, वो हैपाटाईटिस बी और डाईबेटीज़ की इलाज मे महारत रखते हैं, वो पुर्व में पोप जॉन पॉल, शीला दीक्षित और भारत के राष्ट्रपति के हकीम भी रह चुके हैं, इऩके इलावा डॉ ख़ालिद अंसारी, एस.एम.अय्युब उस्मानी, डॉ सैयद मोहिउद्दीन जैसे सैकड़ो लोग भी हैं जो युनानी चिकित्सा पद्धती के प्रचार ओ प्रसार में लगे हैं और हकीम अजमल ख़ान साहेब की विरासत को बचाने की कोशिश कर रहे हैं… ज़रुरत इस बात की है के हम अपने विरासत की अहमियत को समझें…
- मुहम्मद उमर अशरफ