सम्भल विधानसभा : मजलिस के प्रत्याशी ज़ियाउर्रहमान बर्क़ मज़बूत स्थिति में

सम्भल। एआईएमआईएम के उम्मीदवार ज़ियाउर्रहमान बर्क़ की स्थिति खासी बेहतर बताई जा रही है, वे सपा के उम्मीदवार और कैबिनेट मंत्री नवाब इक़बाल महमूद को कड़ी टक्कर दे रहे हैं। जानकारों की नज़र में ज़ियाउर्रहमान जीत की स्थिति में हैं। यहां मतदान 15 फरवरी को है। संभल जिले के अंतर्गत आने वाली विधानसभा संख्या 33 है। पिछले तीन विधानसभा चुनावों में संभल से समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार को ही जीत मिली है लेकिन पार्टी में भीतर चल रही गुटबाजी से और नेताओं के बंटते धड़ों से संकेत नकारात्मक मिल रहे हैं।

सम्भल विधानसभा सीट से इस बार 9 उम्मीदवार मैदान में हैं। मजलिस ने ज़ियाउर्रहमान, सपा ने इक़बाल महमूद, भाजपा ने डॉ. अरविन्द, बसपा ने रफ़तुल्लाह, रालोद ने क़ैसर अब्बास और जनशक्ति दल ने नेम सिंह जाटव को चुनावी मैदान में उतारा है। इसके अलावा अजय कुमार, फरहाद व संतोष कुमारी बतौर निर्दलीय प्रत्याशी अपनी क़िस्मत आज़मा रहे हैं। सम्भल विधानसभा से 2012 में यहां सपा के इक़बाल महमूद की जीत हुई थी। उन्हें कुल 79,820 वोट मिले थे, दूसरे नंबर पर रहने वाले भाजपा प्रत्याशी राजेश सिंघल को 49,773 वोट हासिल हुए थे जबकि 46,220 वोट लेकर बसपा के रफ़तुल्लाह तीसरे नंबर पर थे।

सम्भल की लड़ाई इसलिए भी दिलचस्प है कि क्योंकि शफ़ीक़ुर रहमान बर्क़ सपा व बसपा दोनों ही जगह रह चुके हैं। इनके पोते दोनों ही पार्टियों से टिकट न मिलने के कारण वो ओवैसी की पार्टी में शामिल हुए हैं। मजलिस इनके लिए तीसरी पार्टी है। यहां से मजलिस की हार-जीत का गणित कुछ हद तक आगे की राजनीति में मुस्लिम वोटों के रूझान पर भी असर डाल सकता है।

अपने पोते की जीत के लिए शफ़ीकुर्रहमान ने भी दिन-रात एक कर दिया है। आखिर इन्हें इक़बाल महमूद से 2014 के चुनाव में हुए अपनी हार का बदला जो लेना है। दरअसल शफ़ीकुर्रहमान बर्क़ ये मानते हैं कि 2014 में उनकी हार की सबसे बड़ी वजह इक़बाल महमूद थे। इधर ओवैसी भी 86 साल के शफ़ीक़ुर्रहमान बर्क़ के सहारे यूपी चुनाव में अपनी पार्टी का खाता खोलने के लिए अपनी पूरी ताक़त यहां झोंक देना चाहते हैं, वो यहां दो बार अपनी चुनावी सभा कर चुके हैं।

एक उर्दू अख़बार से जुड़े पत्रकार साद नोमानी बताते हैं कि यहां सपा थोड़ी ताक़तवर है लेकिन लोगों की शिकायतें बहुत हैं। 20 साल से विधायक हैं और 10 साल से मंत्री हैं, लेकिन इन्होंने यहां के युवाओं के रोज़गार के लिए कुछ भी नहीं किया। इन शिकायतों की बुनियाद पर लोगों का झुकाव मजलिस की ओर अधिक है। वैसे भी नौजवान ओवैसी को ज़्यादा पसंद करते हैं।