विरोध और प्रदर्शन हमारे देश में कोई असमान्य घटना नहीं हैं बल्कि यह किसी न किसी बहाने और किसी न किसी बुनियाद पर आये दिन होते रहते हैं। विभिन्न वर्गों और सम्प्रदायों की ओर से किये जाने वाले उन विरोध और प्रदर्शनों की प्रकति विभिन्न हो सती है, लेकिन मकसद एक होता है, सरकार के सामने ताकत का प्रदर्शन, यहाँ यह भी एक सच्चाई है कि प्रदर्शनों और प्रदर्शनकारियों से निपटने के लिए सरकार तरीका कार्य भेदभावपूर्ण हो सकता है और होता भी है।
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यानी अगर प्रदर्शनकारी दलित और मुस्लिम और अन्य अल्पसंख्यक वर्ग हों तो पुलिस को उन पर गोलियां चलाने का लाईसेंस भी मिल जाता है और प्रदर्शनकारी बड़े वर्गों से हों, बहु संख्यक समुदाय से संबंध रखते हों, ब्राह्मण या राजपूत वर्ग से हों तो उन्हें सरकारी और पब्लिक प्रोपर्टी को नष्ट करने की जैसे इजाजत दे दी जाती है और पूरा मौक़ा दिया जाता है कि वह अपना गुस्सा जैसे चाहें और जिस पर चाहें निकाल सकें!!
संजय लीला भंसाली की फिल्म ‘पद्मावत’ की रिलीज़ के खिलाफ हरियाणा, गुजरात, मध्यप्रदेश और राजस्थान जैसी राज्यों में करणी सेना ने जो हिंसात्मक विरोध किया उसकी यहाँ लिखित तौर पर निंदा तो की जा सकती है, लेकिन गौर कीजिये क्या यह निंदा काफी है और इस तरह की घटनाओं की सिर्फ निंदा कब तक की जाती रहेगी वह भी इस रूप में जबकि एक फिल्म के खिलाफ होने वाले विरोध में हरियाणा में करणी सेना के कार्यकर्ताओं ने स्कूल बीएस तक को आग के हवाले कर दिया हो। क्या स्तिथि गंभीर नहीं है?
जहाँ तक फिल्म का संबंध है तो जबतक फिल्म को देख नहीं ली जाती उसपर कोई टिप्पणी नहीं किया जा सकता लेकिन विरोध से मिलने वाला सामूहिक असर चर्चा का विषय है क्योंकि इस संबंध देश की लोकतांत्रिक मूल्यों को पहुंचने वाले नुकसान से है जिसकी फ़िक्र बहुत कम लोगों को है! यहाँ इस ज़हनियत का भी जायजा लेना होगा जो किसी फर्जी घटना से बहुत ज़्यादा सकरात्मक असर लेती है या उससे बहुत ज़्यादा उग्र हो जाती है।