पिछले 3 सालों में सांप्रदायिक घटनाओं का ग्राफ 41 फीसदी बढ़ी

नफरत और ध्रुवीकरण का साल -नेहा दाभाड़े सांप्रदायिक हिंसा, इससे जनित ध्रुवीकरण और विभिन्न समुदायों के बीच बढ़ती नफरत भारत के लिए सबसे बड़े खतरे के रूप में उभरी। इतना नहीं इससे सांप्रदायिक सद्भाव में कमी आई और प्रजातांत्रिक व्यवस्था द्वारा हमें दी गईं आज़ादियों पर बंदिशें लगीं।

पिछले तीन सालों में सांप्रदायिक, जातीय और नस्ली हिंसा को बढ़ावा देने वाली घटनाओं में 41 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। गृह राज्य मंत्री हंसराज अहिर द्वारा सदन में पेश की गई राष्ट्रीय क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट के अनुसार साल 2014 में धर्म, नस्ल या जन्मस्थान को लेकर हुए विभिन्न समुदायों में हुई हिंसा की 336 घटनाएं हुई थीं। साल 2016 में ऐसी घटनाओं की संख्या बढ़कर 475 हो गई।

अहिर ने सदन में कहा कि सरकार के पास गौरक्षकों से जुड़ी हिंसा का आंकड़ा नहीं है लेकिन सांप्रदायिक, जातीय या नस्ली विद्वेष को बढ़ाने वाली हिंसक घटनाओं का आंकड़ा मौजूद है। मंत्री अहिर द्वारा दिए गए आंकड़ों के अनुसार राज्यों में ऐसी घटनाओं में 49 प्रतिशत बढ़ोतरी हुई।

साल 2014 में राज्यों में 318 ऐसी घटनाएं हुई थीं जो साल 2016 में बढ़कर 474 हो गईं। वहीं दिल्ली समेत सभी केंद्र शासित प्रदेशों में ऐसी घटनाओं में भारी की कमी आई। राजधानी और केंद्र शासित प्रदेशों में साल 2014 में ऐसी हिंसा की 18 घटनाएं हुई थीं लेकिन साल 2016 में ऐसी केवल एक घटना हुई।

उत्तर प्रदेश में सांप्रादायिक, जातीय और नस्ली विभेद को बढ़ावा देने वाली हिंसक घटनाओं में तेजी से बढ़ोतरी हुई। यूपी में तीन सालों में ऐसी घटनाएं 346 प्रतिशत बढ़ीं। साल 2014 में यूपी में ऐसी 26 घटनाएं हुई थीं तो साल 2016 में ऐसी 116 घटनाएं हुईं। उत्तराखंड में साल 2014 में ऐसी केवल चार घटनाएं हुई थीं लेकिन साल 2016 में राज्य में ऐसी 22 घटनाएं हुईं। यानी उत्तराखंड में ऐसी घटनाओं में 450 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई।

पश्चिम बंगाल में साल 2014 में ऐसी हिंसा की 20 घटनाएं दर्ज हुई थीं, वहीं साल 2016 में 165 प्रतिशत बढ़ोतरी के साथ ऐसी 53 घटनाएं दर्ज हुईं। मध्य प्रदेश में 2014 में पांच तो 2016 में 26 ऐसी घटनाएं हुई थीं। हरियाणा में 2014 में तीन और 2016 में 16 ऐसी घटनाएं हुई थीं। बिहार में साल 2014 में ऐसी कोई घटना नहीं हुई थी लेकिन 2016 में ऐसी आठ घटनाएं हुईं। अहिरवार ने संसद में बताया कि केंद्र सरकार मॉब लिंचिंग के खिलाफ कोई नया कड़ा कानून बनाने पर विचार नहीं कर रही है।

इन आकड़ों से ये कहना गलत नहीं होगा कि घृणा फैलाने वाले भाषणों की सांप्रदायिकीकरण और ध्रुवीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इनके ज़रिए सांप्रदायिक हिंसा को औचित्यपूर्ण ठहराने की कोशिश होती रही है। यह सचमुच दुःखद है कि उच्च पदों पर बैठे लोग, जिन्हें हमारे संविधान की रक्षा करने की ज़िम्मेदारी सौंपी गई है, वे ही संवैधानिक मूल्यों का मखौल बना रहे हैं। इससे असामाजिक और सांप्रदायिक तत्वों की हिम्मत बढ़ती है।