गुजरात- सांप्रदायिक दंगे का सच दिखाती किताब, जिसे हर ‘भक्त’ को जरूर पढ़ना चाहिए

है तो यह हर सांप्रदायिक दंगे का सच लेकिन इस किताब का महत्व इसलिए बढ़ जाता है क्योंकि इसमें कोई भी बात दस्तावेज से बाहर आए बिना नहीं की गई है और सुनी-सुनाई बातों के आधार पर किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा गया है।

गुजरात कैडर के रिटायर्ड आईपीएस अफसर आर बी श्रीकुमार की किताब कई कारणों से पढ़नी चाहिए। सांप्रदायिक हिंसा करने-कराने, इसके जारी रहने देने में प्रशासन किस तरह भूमिका निभाता है, यह समझने की सबको जरूरत है। प्रशासन किस तरह अपने ‘कुत्सित’ कार्यों को छिपाता है और इसे सामने लाना कितना मुश्किल है, यह जानना भी सबको जरूरी है। इन सबको सामने लाने में कितनी तरह की मुश्किलें किस तरह झेलनी पड़ती हैं, यह भी सबको जानना चाहिए।

यह जानना भी जरूरी है कि प्रशासन किस तरह नेताओं का पिछलग्गू होकर उनके सभी कामों को छिपा लेता है, क्योंकि खुद अधिकारी अपने हाथ कहीं-न-कहीं बांधे रहते हैं। यही नहीं, काॅरपोरेट घराने ऐसे अधिकारियों की लगातार महत्वपूर्ण पदों पर पोस्टिंग कराते रहते हैं और ऐसे में, उनकी सब दिन सभी शासन में चांदी रहती है। उनपर कोई उंगली इसलिए नहीं उठती, क्योंकि सब एक-दूसरे की मदद करने को उतावले रहते हैं और उनके अपराधों को छिपाते चलते हैं।

यह सब जानना इसलिए जरूरी है क्योंकि कल गुजरात में यह सब हुआ, हो सकता है, आपके आसपास इस तरह की दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं हों, और खुद आप या आपका कोई परिचित-रिश्तेदार, सगा-संबंधी इसका शिकार हो जाए और आप कुछ कर पाने की स्थिति में ही नहीं हों।
यह किताब इसलिए आंखें खोलने वाली हैं क्योंकि इसमें वे दस्तावेज भी पेश किए गए हैं जो कमीशन और सरकार के सामने पेश किए गए लेकिन उनकी अनदेखी की गई।

है तो यह हर सांप्रदायिक दंगे का सच लेकिन इस किताब का महत्व इसलिए बढ़ जाता है क्योंकि इसमें कोई भी बात दस्तावेज से बाहर आए बिना नहीं की गई है और सुनी-सुनाई बातों के आधार पर किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा गया है। वैसे, इसमें बात सिर्फ गुजरात की नहीं की गई है, इसमें आपको उत्तर प्रदेश, पंजाब, दिल्ली- सबके दर्शन होंगे। ऐसे में यह बात भी जानने का अवसर मिलेगा कि कोई अधिकारी अगर सच सामने लाने की कोशिश करे तो उसे किस तरह पूरे तंत्र से लड़ना-भिड़ना पड़ता है।

श्रीकुमार ने यह संघर्ष किया और एक तरह से, अब भी कर रहे हैं, इसलिए अगर कोई बात किसी स्तर पर गलत है, तो उनसे सवाल अब भी पूछे जा सकते हैं। सांप्रदायिकता का जहर जिस तरह नए-नए रूप में सामने आ रहा है, ऐसे में इस किताब का महत्व और बढ़ गया है। यह किताब अंग्रेजी में पहले ही आ चुकी है और अब हिंदी-उर्दू में आई है और किसी ने भी कोई सवाल अब तक तो नहीं उठाए हैं, इसलिए यह मानने में भी हर्ज नहीं है कि उन्होंने जो तथ्य प्रस्तुत किए हैं, उन्हें चुनौती देने का साहस किसी में नहीं है।

आजकल हर बात में तथाकथित धर्म का नाम लेने का फैशन हो गया है। भक्तजनों को इसलिए भी यह किताब पढ़नी चाहिए कि वे जिस धर्म के नाम पर सांप्रदायिक वैमनस्य फैलाते हैं, श्रीकुमार ने अपनी बातें कहने के लिए हर अध्याय से पहले अथर्ववेद, यजुर्वेद, ऋग्वेद, बृहदारण्यक उपनिषद, श्रीमद्भागवत, महाभारत आदि के उद्धरण दिए हैं और बताया है कि दरअसल, वे किस तरह के व्यवहार की बातें कहते हैं। हालांकि देश में आजकल जिस तरह का राजनीतिक नेतृत्व है, उससे इससे सीखने-समझने की तो कोई उम्मीद नहीं की जा सकती, इसलिए भी कि खुद इनमें से कई लोगों के हाथ इन दंगों के खून से रंगे हुए हैं, फिर भी यह किताब इसलिए महत्वपूर्ण है कि आम आदमी किस तरह अपने नेताओं से सतर्क रहे।

शीर्षक- गुजरातः पर्दे के पीछे

लेखकः आर.बी. श्रीकुमार; हिंदी अनुवादः अमरीश हरदेनिया

प्रकाशकः फारोस मीडिया एंड पब्लिशिंग प्राइवेट लि., डी 84, अबुल फजल एन्क्लेव1, जामिया नगर, नई दिल्ली 110025; पृष्ठ – 226; मूल्यः 250 रुपये

साभार- नवजीवन