गुजरात में कांग्रेस मुद्दे की और बीजेपी सम्मान की लड़ाई लड़ रही है

गांधीनगर। भारत में इस समय सबकी निगाहें गुजरात के विधानसभा चुनावों पर टिकी हुई हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का गृहराज्य होने और सीधे उनकी प्रतिष्ठा से जुड़े होने के अलावा गुजरात चुनाव इसलिए भी चर्चा में है क्योंकि पिछले समय में अलग-अलग जाति समूह और समुदाय मौजूदा सरकार के खिलाफ आंदोलनरत रहे हैं.

इन आंदोलनों ने गुजरात को कई युवा नेता भी दिये हैं जो भाजपा नेतृत्व को कड़ी चुनौती पेश कर रहे हैं. इन सारे समीकरणों के केंद्रक के तौर पर कांग्रेस उभरी है.

कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने इन चुनावों में जमीनी समीकरणों को समझने वाले और कांग्रेस से बाहर कद्दावर युवा नेताओं को जगह देने वाले एक परिपक्व नेता के तौर पर अपनी छवि बनाने की कोशिश की है.

वहीं भारतीय जनता पार्टी के स्टार प्रचारक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी है और उन्होंने गुजरात की जनता से भावनात्मक अपील करते हुए गुजरात के बेटे के नाम पर वोट मांगे हैं.

पिछले 22 सालों से गुजरात की सत्ता भाजपा के पास होने की वजह से संगठन और प्रचार शक्ति के लिहाज से पार्टी का पलड़ा भारी होना स्वाभाविक है. इसलिए भाजपा का सारा प्रचार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर केंद्रित है और उन्हें जिताकर गुजरात के सम्मान को बचाने की अपील की जा रही है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अपील और गुजराती भाषा में उनके लच्छेदार भाषणों और जमीनी पैठ पर भाजपा को भरोसा है. हालांकि संभवतः पिछले डेढ़ दशक में पहली बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह को गुजरात के अंदर इतना तीखा विरोध झेलना पड़ रहा है. इस विरोध के ठोस कारण आर्थिक और जातिगत महत्वाकांक्षाएं हैं.

गुजरात की कुल 182 विधानसभा सीटों में से 9 दिसंबर 2017 को 89 सीटों पर मतदान हो रहा है. ये 89 सीटें प्रांत के कच्छ, सौराष्ट्र और दक्षिण गुजरात में पड़ती हैं. इनमें भाजपा को कड़े विरोध का सामना करना पड़ रहा है.

पिछले कुछ समय से गुजरात के सबसे प्रभावशाली जाति समूहों में से एक पटेलों ने आरक्षण की मांग के लिए आंदोलन चलाया हुआ है. उनकी मांग है कि उन्हें अन्य पिछड़े वर्ग (ओबीसी) की श्रेणी में आरक्षण दिया जाए. इस आंदोलन के नेता हार्दिक पटेल हैं, जिन्होंने पाटीदार अनामत आंदोलन संघर्ष समिति (पास) बनाई और अभी भाजपा के खिलाफ वोट देने की अपील लेकर मैदान में उतरे हुए हैं.

गुजरात में पटेल लंबे समय से भाजपा के साथ ही थे और उन्हें यह उम्मीद थी कि उनकी मांगों को भाजपा सरकार मान लेगी. पाटीदार आंदोलन के समय पुलिस लाठीचार्ज और नौजवानों के मारे जाने से यह आंदोलन चुनाव में बड़ा मुद्दा बन गया है. सूरत इस पूरे आंदोलन के केंद्र में है.

पहले दौर की नब्ज सूरत शहर से भांपी जा सकती है, क्योंकि पूरे सौराष्ट्र के लोगों का यहां डेरा है. सूरत हीरे के कारोबार और टेक्सटाइल मिलों के लिए जाना जाता है. ये सारा तबका केंद्र सरकार द्वारा लाये गये वस्तु व सेवा कर (जीएसटी) और नोटबंदी की वजह से परेशान और नाराज है. जीएसटी के खिलाफ सूरत के व्यापारियों ने तगड़ा आंदोलन चलाया था और हीरे व्यापारियों ने भी जीएसटी के खिलाफ आवाज उठाई थी.

गुजरात विधानसभा चुनावों के मद्देनजर और इस आक्रोश को भांपते हुए भाजपा की केंद्र सरकार ने जीएसटी में कई रियायतें भी दी, लेकिन उससे बात बनती नहीं दिख रही है.

तीसरा बड़ा चुनावी मुद्दा आदिवासियों से जुड़ा हुआ है. पहले चरण में कई आदिवासी बहुल विधानसभा क्षेत्र आते हैं, जैसे डांग, डाडियापाडा, झगड़िया, मडुआ हड़प आदि. गुजरात के बड़े प्रभावशाली आदिवासी नेता छोटू भाई वसावा अपनी भारतीय ट्राइबल पार्टी से चुनाव लड़ रहे हैं. कांग्रेस ने उन्हें समर्थन दिया है.

पहले वह नीतीश कुमार की जनता दल (यूनाइटेड) में थे, लेकिन फिर हाल ही में उससे अलग होकर अपनी पार्टी बनाई. पहले चरण में आदिवासी बहुल कई विधानसभा सीटें हैं, जिनमें से पांच पर उनकी पार्टी चुनाव लड़ रही है, बाकी पर कांग्रेस और भाजपा में कड़ी टक्कर है.

आदिवासियों की जन-जंगल-जमीन और जंगल अधिकार कानून के सही क्रियान्वयन की मांग इस बार चुनाव में एक गंभीर राजनीतिक मुद्दे के तौर पर उभरी है.

इस बार चुनावों में दलितों के अधिकारों और सम्मान की मांग के इर्द-गिर्द भी अलग किस्म का ध्रुवीकरण हो रहा है. इस आंदोलन के नेता के तौर पर जिगनेश मेवाणी उभरे हैं और उनका असर पूरे राज्य के दलित वोटों पर पड़ने की संभावना है.