फर्जी देशभक्तों को गुरमेहर कौर का जवाब, कहा- मैं आपके शहीद की बेटी नहीं हूँ

दिल्ली यूनिवर्सिटी के रामजस कॉलेज में हुई हिंसक झड़पों के बाद एबीवीपी के खिलाफ मोर्चा खोलने वाली छात्रा और शहीद कैप्टेन मनदीप सिंह की बेटी गुरमेहर कौर एक बार फिर चर्चा में आई हैं।
गुरमेहर कौर ने एक ब्लॉग लिखा है। जिसका टाइटल है ‘आई एम’ इस ब्लॉग में गुरमेहर में अपने पिता और अपने बारे में बात की है। गुरमेहर का कहना है कि देश के लोग मुझे मीडिया के जरिये जानते हैं।

उन्होंने मेरे बारे में सिर्फ आर्टिकल्स में पढ़ा है और मेरे बारे में अपनी राय बना ली है। लेकिन इस ब्लॉग के जरिये मैं उन्हें अपने बारे में खुद बताना चाहती हूँ। गुरमेहर ने अपने ट्विटर हैंडल पर ब्लॉग को पोस्ट किया है।

गुरमेहर इसका जवाब देते हुए कहती हैं कि इस सवाल का जवाब अगर मैं कुछ हफ्ते पहले देती तो शायद उसी हंसमुंख अंदाज और बेपरवाह होकर आम लहजे में देती लेकिन आज मैं ऐसे नहीं कर सकती।

क्या मैं वो हूं जो ट्रोल्स मेरे बारे में सोचते हैं?

क्या मैं वैसी हूं जैसा चित्रण मेरा मीडिया में होता है?

क्या मैं वो हूं जो सिलेब्रिटीज़ मेरे बारे में सोचते हैं?

मैं इनमें से कोई भी नहीं हूँ। जिसे आप लोगों ने हाथों में प्लेकार्ड पकड़े सन्देश देते हुए देखा, या टीवी पर देखा, मैं वह नहीं हूँ, वह निश्चित तौर पर मेरे जैसे दिखने वाली लड़की थी।
उसके चेहरे पर जिन विचारों की झलक थी, वह मुझसे कुछ मिलती-जुलती है। मेरी तरह वह भी उग्र है।
उसके विचारों की उत्तेजना जो उसके चेहरे पर चमकती है, निश्चित तौर पर उनमें मेरी झलक है।
लेकिन दूसरी तरफ ब्रेकिंग न्यूज़ की सुर्ख़ियों ने इसका कुछ और ही पहलू दिखाया।

शहीद की बेटी

मैं अपने पापा की वो बेटी हूँ जिसे वह प्यार से गुलगुल कह कर पुकारते थे, मैं उनकी गुड़िया हूँ। मैं सिर्फ २ साल की वो कलाकार हूँ। जो अपने पापा की माचिस की तीलियों से बनाई गई कलाकृति को समझती हूँ जिसे वह मुझे बुलाने के लिए बनाते थे।

मैं अपनी माँ का सर दर्द, अपनी राय रखने वाली, मूड़ी बच्ची और उनकी ही छाया हूँ। मैं बहन के लिए मैं उसकी पॉप कल्चर गाइड, किसी बड़े मैच से पहले बहस करने वाली उसकी साथी हूँ।

मैं अपनी क्लास में पहले बेंच पर बैठने वाली वो छात्रा हूं जो अपने टीचर्स से किसी भी बात पर बहस करने लगती है। मुझे उम्मीद है कि मेरे दोस्त मुझे पसंद करते हैं।

उनका कहना है कि मेरा सेंस ऑफ ह्यूमर ड्राई है लेकिन कुछ ऐसे दिन भी होते हैं जब यही बहुत कारगार होता है। मैं ऐसी हूँ जिसे किताबें और कविताएं पढ़ना राहत देता है।

मेरे घर में एक लाइब्रेरी है जिसमें किताबे भरी पड़ी है। पिछले कुछ महीनों से मैं इसी चिंता में हूँ कि अपनी माँ को उनके लैंप और तस्वीरें दूसरी जगह रखने के लिए कैसे मनाऊं ताकि मेरी किताबों के लिए शेल्फ में और जगह बन सके।

मैं एक आदर्शवादी, ऐथलीट और शांति की समर्थक हूं। जैसा आपको लगता है, मैं उग्र और युद्ध का विरोध करने वाली बेचारी लड़की नहीं हूं। मुझे युद्ध की कीमत का अंदाजा है इसलिए मैं इसे नहीं चाहती।

मेरा भरोसा करिए, मैं युद्ध की कीमत बेहतर जानती हूं क्योंकि मैंने इसकी क़ीमत हर रोज चुकाई है। इसकी कोई क़ीमत नहीं है। अगर होती तो आज कुछ लोग मुझसे इतनी नफरत न कर रहे होते।

टीवी पर ये न्यूज़ चैनल वाले ऐसे पोल करा रहे थे, “गुरमेहर का दर्द सही है या गलत?” अगर ५० प्रतिशत से ज्यादा लोग सोच रहे हैं तो मैं गलत हो भी सकती हूँ। इस स्थिति में सिर्फ भगवान ही जानता है कि कौन मेरे दिमाग को खराब कर रहा है।

पिछले 18 सालों से मेरे पापा मेरे साथ नहीं है। 6 अगस्त, 1999 के बाद मेरी छोटी सी डिक्शनरी में कुछ नए शब्द जुड़ गए- मौत, पाकिस्तान और युद्ध।

ज़ाहिर है, कि कुछ सालों तक मैं इन शब्दों और इनके पीछे छिपा हुआ मतलब भी नहीं समझ

मैं अपने पिता को शहीद की तरह नहीं जानती। मेरी नजर में वह एक ऐसे शख्स थे जो कार्गो की बड़ी जैकेट पहनते थे और जिनकी जेबें मिठाइयों से भरी होती थीं।
जब मैं उनका माथा चूमती थी वह मेरी नाक को हल्के से मरोड़ते थे। मैं उस पिता को जानती हूं जिसने मुझे स्ट्रॉ से पीना सिखाया, जिसने मुझे च्यूइंगम दिलाया।

मैं उन्हें उस तरह जानती हूँ जिसका कंधा मैं जोर से पकड़ लेती थी ताकि वो मुझे छोड़कर न चले जाएं। वो चले गए और फिर कभी वापस नहीं आए।

ती थी। छिपा हुआ इसलिए कह रही हूँ। क्योंकि क्या किसी को भी इसका मतलब पता है? मैं तो आज भी इनका मतलब ढूंढने की कोशिश कर रही हूं।

मेरे पिता शहीद हैं। मैं उनकी बेटी हूं।

लेकिन,

मैं आपके ‘शहीद की बेटी’ नहीं हूं।