कांग्रेस ने 1984 के नरसंहार में आरोपी रहे शख्स को मुख्यमंत्री बनाकर अपने धर्मनिरपेक्ष सिद्धान्तों से समझौता किया है!

1948 में महात्मा गांधी की हत्या के बाद भारत आज योजनागत तरीके से फैलाई गई सांप्रदायिक नफरत और धर्म रक्षक(सतर्क) समूहों के व्यापक स्तर पर बढ़ते साम्प्रदायिक हमलों के कारण ज्यादा विभाजित है, जिसका समर्थन सत्ताधीश खुलेआम करते हैं. इस समय जब देश 2019 के गर्मियों के मध्य में होने वाले आमचुनावों के नज़दीक खड़ा है, तो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस सत्ता में वापसी के लिए समरसता, शांति और कानूनी शासन बहाल करने का वादा कर रही है.

परन्तु इस दावे की विश्वसनीयता सभी राज्य चुनावों में भारत के सामाजिक तानेबाने पर उपजे गंभीर खतरों पर चुप्प रहने के कारण खत्म हो गई और वास्तव में यह एक धर्मनिरपेक्ष और मानवतावादी देश के अस्तित्व का सवाल है. ऐसा लगता है कि पार्टी लोगों के बीच दया और सद्भावना खत्म करने वाले बढ़ते नफरत के ज़हर पर सार्वजनिक रूप से बात करने और इसका खुलकर मुकाबला करने की इच्छुक नहीं है. अगर पार्टी धार्मिक अल्पसंख्यकों के अधिकारों का खुलकर बचाव नहीं करना चाहती, जो भारतीय राज्य द्वारा समान नागरिक अधिकार के रूप में संरक्षित हैं, तो इसे निर्णायक रूप से भारत को अपने धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों के रास्ते पर बहाल करने की लड़ाई में शामिल होने के रूप में कैसे देखा जा सकता है?

हालांकि, क्रूर बहुसंख्यक हमलों के खिलाफ भारत के धर्मनिरपेक्ष संवैधानिक मूल्यों के रक्षक के रूप में इनकी सत्यनिष्ठा पर एक बड़ा आघात तब उजागर हुआ है जब इस महीने की शुरूआत में कमलनाथ को मध्य प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाकर नैतिक रूप से असमर्थनीय निर्णय लिया है.

34 साल बाद भी, देश के राजधानी में विभाजन के बाद हुए सबसे बड़े, सबसे भीषण सांप्रदायिक नरसंहार में मारे गए लगभग 3,000 सिखों की आत्माओं के घाव नहीं भरे हैं. वे न्याय के बिना भर भी नहीं कर सकते.

हिंसक भीड़ का नेतृत्व
1984 के नरसंहार में जीवित बचे सिखों ने कांग्रेस के कई प्रमुख नेताओं का नाम लिया, जिन्होंने दावा किया कि कत्लेआम के दौरान उनकी मौजूदगी और नेतृत्व में हिंसक भीड़ ने निर्दोष सिखों का क़त्ल किया. इनमें एचकेएल भगत की मौत हो गई है, ललित माकन को 1985 की गर्मियों में मार दिया गया था, जगदीश टाइटलर को राजनीतिक रूप से दूर कर दिया गया और सज्जन कुमार को अभी हाल ही में 17 दिसंबर को अपने जीवन के अंत तक कारावास की सजा दी गई है. दूसरी तरफ कमलनाथ को कांग्रेस ने देश के सबसे बड़े राज्यों में से एक का नेतृत्व करने के लिए चुना है.

1984 के नरसंहार के समय द इंडियन एक्सप्रेस के रिपोर्टर मनीष संजय सूरी और गुरुद्वारा रकाबगंज के क्वार्टर में रहने वाले मुख्तियार सिंह ने न्यायमूर्ति जीटी नानावती आयोग को कमलनाथ की गुरूद्वारे के बाहर हुई हिंसा में भूमिका के बारे में गवाही दी है. इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार मुख्तियार सिंह ने बताया था कि 1 नवंबर, 1984 को भीड़ ने गुरुद्वारे पर आधे घंटे तक हमला किया. वहां पुलिसकर्मी भी खड़े थे. उन्होंने बताया कि एक बुजुर्ग सिख व्यक्ति और उनके बेटे को भीड़ ने आग लगा दी जब वे दोनों गुरुद्वारे पर हमला करने वाली भीड़ को रोकने की कोशिश कर रहे थे. उन्होंने दावा किया कि नाथ और उनके कांग्रेस सहयोगी वसंत साठे को “भीड़ में देखा गया था”. सूरी ने आयोग को बताया कि गुरुद्वारे पर हमला करने वाली भीड़ का नेतृत्व कमलनाथ ने किया था और उसने “गुरुद्वारे के पास स्थिति को नियंत्रित करने का कोई प्रयास नहीं किया”.

आयोग ने कमलनाथ द्वारा दायर किए गए जवाब को “अस्पष्ट” करार दिया. चूँकि सबूत यह “खुलासा” करते हैं कि वह “भीड़ में देखे गए थे”. जवाब में यह “स्पष्ट रूप से नहीं कहा गया था” किस समय वह वहाँ गए थे और कितनी देर तक वह वहाँ रहे. लेकिन यह निष्कर्ष निकाला कि “बेहतर साक्ष्यों के अभाव में यह कहना संभव नहीं है कि कमलनाथ ने किसी भी तरह से भीड़ को उकसाया या वह गुरुद्वारे पर हमले में शामिल रहे.

कांग्रेस कमलनाथ के चयन का जोरदार और आग्रहपूर्ण बचाव करते हुए कहती है कि कमलनाथ पर सिखों को मारने के लिए उकसाने के अपराध का केवल आरोप लगाया गया था, उन्हें कभी भी क़ानूनी अदालत में दोषी नहीं ठहराया गया. नाथ खुद दावा करते हैं कि वह किसी भी अपराध में अनुपस्थित थे. लेकिन यह उतना ही कमजोर बचावपक्ष है, जितना कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राज्य के मुख्यमंत्री रहते हुए गुजरात में 2002 के सांप्रदायिक नरसंहार में किसी भी भूमिका के लिए निर्दोष हैं, क्योंकि विशेष जांच दल ने उन्हें किसी भी अपराध के लिए दोषमुक्त करार दिया था. पत्रकार और लेखक मनोज मित्त ने इस जांच में कई खामियों और विफलताओं को व्यापक रूप से प्रलेखित किया है जो मोदी की “क्लीन चिट” देने में योगदान करती हैं.

भारत की न्यायिक प्रणाली भी राजनैतिक लोगों को सांप्रदायिक अपराधों में उनकी भूमिका के लिए दंडित करने में विलक्षण रूप से विफल रही है. और सिर्फ 1984 के नरसंहार में नहीं. विशेष अदालत की जज ज्योत्सना याग्निक द्वारा अगस्त 2012 में गुजरात के मोदी कैबिनेट में मंत्री रही माया कोडनानी को दोषी ठहराना एक विलक्षण अपवाद था. माया कोडनानी ने 2002 में गुजरात में हुए एक सबसे बड़े नरसंहार में अहमदाबाद के एक उपनगर नरोदा पाटिया में महिलाओं, बच्चों और पुरुषों को मारने वाली भीड़ को उकसाने और नेतृत्व करने का काम किया था. सज्जन कुमार की तरह कोडनानी को भी अपनी बाकी की जिंदगी जेल में बिताने की सजा मिली थी. लेकिन 2014 में मोदी के सत्ता में आने के तुरंत बाद उसे जमानत दे दी गई थी और इस साल अप्रैल में गुजरात उच्च न्यायालय द्वारा उसे बरी कर दिया गया.

इसलिए सज्जन कुमार को अपराधी ठहराया जाना दुर्लभ और महत्वपूर्ण है. यह एक महिला द्वारा न्याय के लिए एक अद्भुत, बहादुर और अथक लड़ाई का परिणाम है, जिसने कुमार को उस भीड़ का नेतृत्व करते देखा जिसने उनके पिता और पुत्र को मार डाला. कुमार को निचली अदालतों ने बरी कर दिया था, लेकिन 1984 में जीवित बचे लोगों को आखिरकार दिल्ली उच्च न्यायालय से साढ़े तीन दशक बाद न्याय मिल गया.

हां हम जीवित हैं!
नरसंहार की 30वीं वर्षगांठ पर फोटोग्राफर गौरी गिल ने दिल्ली के तिलक विहार में विधवा कॉलोनी की तस्वीरों की एक स्पष्ट, मर्मभेदी पुस्तिका का विमोचन किया, जिसमें साक्ष्य, कथाएं और कविताएं थीं. उन्होंने लिखा,

“1984 पर एक प्रकार की चुप्पी है, जो इसे हिंसा की आशंका और राहत दिलाने की असंभावनाओं की तरफ धकेल सकती है. चश्मदीदों के बयानों के जवाबों में सरकार की ओर से मिलने वाली ख़ामोशी ही शायद इन बुलंद आवाज़ों के बेअसर होने की वजह है.”

गिल ने गंगा कौर की आवाज़ को रिकॉर्ड किया, जिन्होंने अपने पति, बहनोई और चार भतीजों को नरसंहार में खो दिया. कौर बताती हैं, “हर बार जब नवंबर आता है, तो हमें उस नरसंहार की याद आती है. यह इतिहास हमारे साथ ही ख़त्म होगा.”

पत्रकार निलांजना रॉय ने कहा कि 1984 के सिख नरसंहार का सरकारी स्मरण सिर्फ इतना है कि ये एक खाली पड़ी और मिटाई हुई स्लेट है. ये वो टेप्स हैं जहां कोई कुछ बोलता ही नहीं है. सरकारी कमीशन की रिपोर्ट ने न तो किसी को दोषी बताया है और न किसी को दोषी बताएगी.

लेखक प्रदीप कृष्णन ने ये भी कहा कि ‘ज़रूरी ये है कि हम इन घटनाओं को याद रखें. ऐसी घटनाओं को भुलाकर आगे बढ़ जाना अनैतिक है.’ उन्होंने कहा कि आतंक और संगठित क्रूरता (हिंसा) को नहीं भुलाया जा सकता.

रॉय याद करते हुए बताती हैं, “उनके पास संयोजित नरसंहार करने के लिए सिखों के घरों पर निशान लगाने के लिए चाक खरीदने, मतदाता सूचियों को फरोलने और दंगे के जरूरी समान की व्यवस्था करने का पूरा समय था. जानबूझकर किए गए इस संगठित नरसंहार का नतीजा सिखों का रक्त और मृत शरीर थे. उसके बाद याददाश्त से जूझने के कई दशक, और न सुलझ पाने वाली चीज़ों की लंबी फेहरिस्त. एफआईआर जो पुलिस ने कभी दर्ज नहीं करीं. राजनेताओं के खिलाफ मामले जो कभी अदालतों में नहीं पहुंचें. चश्मदीदों के बयानों को नकारते हुए उन्हें मिटा दिया गया.”

कुछ लोगों का मानना था कि स्वतंत्र भारत में महान महानगर दिल्ली इस तरह की निर्दयतापूर्ण क्रूरता के लिए सक्षम था. कलाकार शुधब्रत सेनगुप्ता अकेले नहीं हैं, जब वे कहते हैं कि उन्होंने इस शहर को कभी माफ़ नहीं किया है. उन्होंने याद करते हुए बताया कि वह 16 साल के एक स्कूली छात्र थे जब उन्होंने सिख पुरुषों को जिंदा जलते देखा था और इस घटना ने उन्हें अचानक एक इंसान में तब्दील कर दिया. जिसके बाद उन्होंने कई महीनों तक पीड़ित बच्चों के साथ स्वयंसेवक के रूप में काम किया.

उमा चक्रवर्ती और नंदिता हक्सर ने लिखा कि इस शर्मनाक संगठित नरसंहार का सबसे सच्चा, अधूरा हिसाब क्या है. मीता बोस जैसी शिक्षक और जया श्रीवास्तव और ललिता रामदास जैसी गृहणियों ने राहत शिविरों को चलाने और नरसंहार को दस्तावेजी रूप देने के लिए अपने घरों और कॉलेजों से बाहर कदम रखा. वे कपड़े और दवा इकट्ठा करने के लिए घर-घर जाने के वाक्यों को याद करती हैं. उस समय कुछ ने अपने पर्स खोलकर रख दिए थे तो कुछ ने यह कहकर अपने दरवाजे बंद कर लिए थे, “वे इसके हकदार थे.”

गिल की किताब में विधवाओं और उनके बच्चों की बहुत सी आवाजें घनघनाती हैं. दर्शन कौर याद करती हैं, ” मैंने जिन्दगी में कुछ नहीं देखा, मैं केवल रोयी हूं. लेकिन फिर भी हममें से कोई भी भिखारी नहीं है ये आपने भी देखा ही होगा. मैं पैसे बचाने के लिए, काम पर जाते हुए हर दिन पैंतीस किलोमीटर पैदल चली लेकिन भीख नहीं मांगी.”

किसी भी चीज ने इन अनपढ़ कामकाजी महिलाओं को दुनिया का सामना अकेले करने के लिए तैयार नहीं किया था. लेकिन इन्होंने अपनों को खोने के वियोग और सताने वाली यादों के बावजूद बहादुरी और हिम्मत से अपने बच्चों और नाती पोतों की परवरिश की.

गोपी कौर को कैलाश नगर में पानी देने वाली नौकरी मिली थी. ” लेकिन मुझे नहीं पता था कि बस कैसे लेनी है, इससे पहले मैंने घर से बाहर कदम तक नहीं रखा था……… पहले मुझे मेरा भाई छोड़ने आता था, फिर बेटे ने कुछ दिन छोड़ा. बस के अन्दर मैं पागल ही हो जाती.

लेखक : हर्ष मन्दर (24 दिसंबर को स्क्रॉल में प्रकाशित लेख का हिंदी अनुवाद)