70 या 80 के दशक तक पैदा हुए बच्चों पर अनजाने ही समाजवाद का असर रहता था. हर बहस में कुछ सवाल घूम-घूम कर आते. मसलन अगर हिंदुस्तान और पाकिस्तान में लडाई हो जाए तो कौन-कौन से देश हमारा साथ देंगे. सबसे पहले नाम आता था यूएसएसआर यानी सोवियत संघ का. यह संघ तो अब टूट चुका है. एक और सवाल भी बहस का सबब बनता था कि अगर दारा सिंह और मोहम्मद अली में लड़ाई हो जाए तो कौन जीतेगा? ‘भाई साहब दारा सिंह ने एक बार उसको पकड़ लिया न बस, खेल ख़त्म.’ जवाब मिल चुका होता था.
ऐसा ही एक सवाल होता था, ‘किंग कॉन्ग और गामा में लड़ाई हो जाए तो कौन जीतेगा?’ सभी का जवाब एक ही होता था – गामा पहलवान. तब बहुत कम बच्चों को यह मालूम था कि किंग कॉन्ग सिर्फ एक फंतासी है. उधर न फोटो देखी होती थी, न यह मालूम था कि गामा ने किस-किसको हराया है. बस सुनी-सुनाई बातें और कोरी कल्पना के सहारे गामा का नाम हमारे ज़हन पर हावी था. एक बात और, तब किसी को यह भी नहीं मालूम था कि गामा हिंदू हैं या मुसलमान. दरअसल, तब यह सवाल था ही नहीं.
आज के दिन सन 1878 में अमृतसर में पैदा हुए गामा पहलवान का असल नाम था- ग़ुलाम मोहम्मद. वालिद भी देसी कुश्ती के खिलाड़ी थे. चुनांचे शुरूआती तालीम घर पर ही हुई. 10 साल की उम्र में उन्होंने पहली कुश्ती लड़ी थी. पहली बार उन्हें चर्चा मिली उस दंगल से जो जोधपुर के राजा ने 1890 में करवाया था. छोटे उस्ताद गामा ने भी उस दंगल में हाज़िरी दे डाली थी. जोधपुर के राजा ने जब गामा की चपलता और कसरत देखी तो दंग रह गए. उन्हें कुछ एक पहलवानों से लड़ाया भी गया. गामा पहले 15 पहलवानों में आये. राजा ने गामा को विजेता घोषित किया.
कहते हैं यहां से गामा ने फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा. 19 के होते-होते गामा ने हिंदुस्तान के एक से एक नामचीन पहलवान को हरा दिया था. पर एक नाम था जो देश में कुश्ती के मैदान में बड़ी इज्ज़त के साथ लिया जाता था- गुजरांवाला के करीम बक्श सुल्तानी. यह नाम अब भी गामा के लिए एक चुनौती था.
लाहौर में दोनों के बीच कुश्ती का दंगल रखा गया, और कहते हैं कि तमाम लाहौर उस दिन सिर्फ दंगल देखने उस मैदान में टूट पड़ा था. तकरीबन सात फुट ऊंचे करीम बक्श के सामने पांच फुट सात इंच के गामा बिलकुल बच्चे लग रहे थे. जैसा कि अमूमन होता है कि नए घोड़े पर दांव नहीं लगाया जाता. सबने यही सोचा था कि थोड़ी देर में सुल्तानी गामा को चित्त कर देंगे. तीन घंटे तक लोग चिल्लाते रहे, भाव बढ़ते- घटते रहे. अंत में नतीजा कुछ नहीं निकला. दोनों बराबरी पर छूटे. इस दंगल का असर यह हुआ कि गामा हिंदुस्तान भर में मशहूर हो गए.
विश्व विजेता पहलवान गामा से कुश्ती लड़ने आया ही नहीं
1910 में अपने भाई के साथ गामा लंदन के लिए रवाना हो गए थे. लंदन में उन दिनों ‘चैंपियंस ऑफ़ चैंपियंस’ नाम की कुश्ती प्रतियोगिता हो रही थी. इसके नियमों के हिसाब से गामा का कद कम था लिहाज़ा उन्हें दंगल में शरीक होने से रोक दिया गया. गामा इस बात पर गुस्सा हो गए और ऐलान कर दिया कि वे दुनिया के किसी भी पहलवान को हरा सकते हैं और अगर ऐसा नहीं हुआ वे जीतने वाले पहलवान को इनाम देकर हिंदुस्तान लौट जायेंगे.
उन दिनों विश्व कुश्ती में पोलैंड के स्तानिस्लौस ज्बयिशको, फ्रांस के फ्रैंक गाच और अमरीका के बेंजामिन रोलर काफी मशहूर थे. रोलर ने गामा की चुनौती स्वीकार कर ली. पहले राउंड में गामा ने उन्हें डेढ़ मिनट में चित कर दिया और दुसरे राउंड में 10 मिनट से भी कम समय में उन्हें फिर पटखनी दे डाली! फिर अगले दिन गामा ने दुनिया भर से आये 12 पहलवानों को मिनटों में हराकर तहलका मचा दिया. आयोजकों को हारकर गामा को दंगल में एंट्री देनी पड़ी.
फिर आया सितम्बर 10, 1910 का वह दिन जब जॉन बुल प्रतियोगिता में गामा के सामने विश्व विजेता पोलैंड के स्तानिस्लौस ज्बयिशको थे. एक मिनट में गामा ने उन्हें गिरा दिया और फिर अगले ढाई घंटे तक वे फ़र्श से चिपका रहे ताकि चित न हो जाएं. मैच बराबरी पर छूटा. चूंकि विजेता का फ़ैसला नहीं हो पाया था, इसलिए हफ़्ते भर बाद दोबारा कुश्ती रखी गयी. 17 सितम्बर, 1910 के दिन स्तानिस्लौस ज्बयिशको लड़ने ही नहीं आए. गामा को विजेता मान लिया गया. पत्रकारों ने जब ज्बयिशको से पुछा तो उनका कहना था, ‘ये आदमी मेरे बूते का नहीं है.’ जब गामा से पूछा गया तो उन्होंने कहा, ‘मुझे लड़कर हारने में ज़्यादा ख़ुशी मिलती बजाय बिना लड़े जीतकर!’
हिंदू परिवारों का रखवाला
1947 में हालात ख़राब थे. गामा अमृतसर से लाहौर की मोहिनी गली में बस गए थे. बंटवारे ने हिंदू-मुसलमान के बीच बड़ी दीवार खड़ी कर दी थी. गली में रहने वाले हिंदुओं की जान सांसत में थी. ‘रुस्तम-ए-हिंद’ और ‘रुस्तम-ए-ज़मां’ तब आगे आए. किस्सा है कि उन्होंने कहा, ‘इस गली के हिंदू मेरे भाई हैं. देखें इनपर कौन सा मुसलमान आंख या हाथ उठाता है!’
आग हर तरफ फैली हुई थी. लिहाज़ा, कुछ फ़िरकापरस्त उस गली के मुहाने पर आ खड़े हुए जहां गामा अपने चेलों के साथ हिंदुओं की रखवाली कर रहे थे. जैसे ही एक फ़िरकापरस्त आगे बढ़ा गामा ने उसे वह चपत लगाई कि बाकियों की घिग्गी बंध गयी. उस गली के एक भी हिंदू को खरोंच तक नहीं आई. जब हालात बहुत बिगड़ गए तो गामा ने अपने पैसों से गली के हिंदुओं को पाकिस्तान से रवाना किया.
बुढ़ापे और गर्दिश के दिन
गामा ता-जिंदगी हारे नहीं. उन्हें दुनिया में कुश्ती का सबसे महान खिलाड़ी कहा जाता है. पर बात वही है न. बुढ़ापा ऐसे महान खिलाड़ियों का भी ग़रीबी में ही कटता है, सो उनका भी कटा. हिंदुस्तान के घनश्याम दास बिड़ला कुश्ती प्रेमी थे. उन्होंने दो हज़ार की एक मुश्त राशि और 300 रूपये मासिक पेंशन गामा के लिए बांध दी थी. बड़ौदा के राजा भी उनकी मदद के लिए आगे आये थे. पाकिस्तान में जब इस बात पर हो-हल्ला हुआ तब सरकार ने गामा के इलाज़ के लिए पैसे दिए. इससे याद आया कि बड़ौदा के संग्रहालय में 1200 किलो का एक पत्थर रखा हुआ है जिसे 23 दिसम्बर, 1902 के दिन गामा उठाकर कुछ दूर तक चले थे! आप गामा को आज याद करके थोड़ा मुस्करा लीजिये और कल, यानी 23 मई को इस महान पहलवान की याद में थोड़ा ग़मगीन हो जाइएगा.
चलते-चलते
हाल ही में पहलवानी और कुश्ती से जुडी दो फिल्में- ‘सुलतान’ और ‘दंगल’ काफी हिट रही हैं. अभिनेताओं और निर्माताओं ने करोड़ों कमाये हैं. कमाना भी चाहिए. पर क्या सलमान खान और आमिर खान में से कोई राष्ट्रीय खेल संस्थान, पटियाला जाकर इस खेल को आगे बढ़ाने के लिए कुछ धनराशि देकर आया होगा? आपको जानकर ख़ुशी होगी कि इस खेल संस्थान में गामा द्वारा कसरत के लिए इस्तेमाल में लाये गए उपकरण मौजूद हैं. एक बात और, पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ की बेग़म कुलसूम नवाज़ हमारे उस्ताद गामा पहलवान की पोती हैं!
– सत्याग्रह पोर्टल में अनुराग भरद्वाज का लेख