‘धर्म को राजनीति के कीचड़ में घसीटने वालों से कैसे निपटा जाए’

पाकिस्तान के अलावा, कई पश्चिम एशियाई देशों में इस्लाम के नाम पर सामंतवाद और एकाधिकारवाद की जड़ों को सींचा जा रहा है। म्यांमार और श्रीलंका में बौद्ध धर्म राजनीति का मोहरा बना हुआ है। भारत में हिन्दुत्व का इस्तेमाल, उदारवाद और समानता के पक्ष में उठने वाली आवाजों को खामोश करने के लिए किया जा रहा है। इस तरह की संकीर्ण, कट्टरवादी राजनीति अक्सर कलाकारों और रचनात्मक कार्य में संलग्न अन्य व्यक्तियों को अपना निशाना बनाती है।

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इन दिनों फिल्मों, टीवी सीरियलों, उपन्यासों इत्यादि में लगभग हमेशा मुस्लिम चरित्रों को आतंकवादी और अतिवादी के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। अगर क्वांटिको के एक एपीसोड में एक हिन्दू को आतंकवादी दिखा भी दिया गया तो इस पर इतना बवाल किए जाने की क्या आवश्यकता है?

क्या यह इतना बड़ा अपराध है कि उसके लिए संबंधित कलाकार की नागरिकता तक रद्द करने की मांग की जाए? हिंसा और आतंकवाद को धर्म से जोड़ने की प्रवृत्ति 9/11 के डब्ल्यूटीसी हमले के बाद शुरू हुई। सच यह है कि इस और अन्य आतंकी हमले करने वाले गिरोहों को अमरीका ने ही हथियार और प्रशिक्षण उपलब्ध करवाया, ताकि वे सोवियत रूस के अफगानिस्तान पर कब्जे के विरूद्ध चल रही लड़ाई में भाग ले सकें।
उन्हें धर्मांध लड़ाका बनाने के लिए इस्लाम के उस संस्करण का उपयोग किया गया जो सऊदी अरब में प्रचलित है। यह सारी योजना वाशिंगटन में बनी और वहीं से कार्यान्वित की गई। आतंकी हरकतों को इस्लाम के नाम पर वाजिब ठहराया गया।

अमरीकी मीडिया ने ‘इस्लामिक आतंकवाद‘ शब्द गढ़ लिया और पहली बार किसी धर्म को आतंकवाद से जोड़ा। यह इस तथ्य के बावजूद कि दुनिया में आतंकी सभी धर्मों के रहे हैं। इसी तर्ज पर, कई आतंकी हमलों में हिन्दू राष्ट्रवादियों का हाथ होने की बात सामने आने पर हिन्दू आतंकवाद, भगवा आतंकवाद और हिन्दुत्व आतंकवाद जैसे शब्द इस्तेमाल होने लगे। अब, प्रज्ञा ठाकुर और असीमानंद जैसे आरोपियों को जमानत मिलने के बाद यह मांग की जा रही है कि जिन लोगों ने इन शब्दों का इस्तेमाल किया था, वे क्षमा मांगे।

मालेगांव में सन् 2008 में हुए बम विस्फोटों की महाराष्ट्र पुलिस के आतंकवाद-निरोधक दस्ते के प्रमुख हेमंत करकरे द्वारा की गई सूक्ष्म जांच से यह सामने आया कि विस्फोट में इस्तेमाल की गई मोटरसाईकिल कई हिन्दुत्व संगठनों से जुड़ी प्रज्ञा सिंह ठाकुर की थी।
जैसे-जैसे जांच आगे बढ़ती गई, अन्य हिन्दुओं के नाम सामने आने लगे।

इनमें शामिल थे ले. कर्नल प्रसाद पुरोहित, मेजर उपाध्याय, स्वामी दयानंद और स्वामी असीमानंद। इनमें से कई हिन्दू राष्ट्रवादी संगठनों से जुड़े थे और कई सीधे आरएसएस से। जांच के बाद कई लोगों को गिरफ्तार किया गया और इनमें से आरएसएस के दो पूर्व प्रचारकों को अजमेर धमाकों के मामले में आजीवन कारावास की सजा भी सुनाई गई।

साध्वी प्रज्ञा, पुरोहित और असीमानंद को जमानत पर रिहा कर दिया गया है। स्वामी ने एक मजिस्ट्रेट की मौजूदगी में यह इकबालिया बयान दिया था कि उसने कई आतंकी हमलों की योजना बनाई थी। स्वामी दयानंद पांडे के लैपटॉप में आपत्तिजनक सामग्री मिली थी। इस सारी जांच और सुबूतों के बाद भी, सन् 2014 में केन्द्र सरकार में परिवर्तन के बाद, इन सभी को जमानत मिल गई। क्या सच कभी सामने आएगा?

इस घटनाक्रम से अपराध और सजा से जुड़े कई सवाल उभरते हैं। सन् 1993 के मुंबई धमाकों से संबंधित प्रकरण में रूबीना मेमन को केवल इसलिए आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई क्योंकि धमाकों में प्रयुक्त कार उसके नाम पर पंजीकृत थी। मालेगांव धमाकों में इस्तेमाल की गई मोटरसाईकिल साध्वी प्रज्ञा की थी परंतु उन्हें जमानत मिल गई।

पिछले कुछ समय से देश में जो कुछ हो रहा है, वह अत्यंत चिंताजनक है। शंभुलाल रैगर, जिसने अफराजुल को लवजिहाद के नाम पर अत्यंत क्रूरतापूर्वक मौत के घाट उतारा था, के परिवार के लिए चंदा इकट्ठा किया गया। प्रोफेसर कलबुर्गी और गौरी लंकेश की हत्या से हिन्दुत्व संगठनों के जुड़े होने के प्रमाण सामने आ रहे हैं।

प्रियंका चोपड़ा जैसे लोग अपने करियर की खातिर क्षमा मांगकर विवाद से बच जाते हैं परंतु बड़ा मुद्दा यह है कि धर्म को राजनीति के कीचड़ में घसीटने वालों से कैसे निपटा जाए?

(लेख: राम पुनियानी)