‘हर सुबह की इबादत मुझे कुछ और घंटे रिक्शा चलाने की क़ुव्वत देती है’

मां मुझे घर-घर नमक, चीनी प्याज़ लेने भेजती. पड़ोसियों से ये सब मांगे बिना खाना पकाना ना-मुमकिन था. कभी कभी नमक मांगने पर भी वे लोग ऐसी नज़रों से देखते, लगता मैंने उनका दिल या किडनी मांग ली हो.

उन्हें ऐसी नज़रों से देखना भी चाहिए था, क्योंकि वे भी हमारी ही तरह बेहद ग़रीब थे. वे बख़ूबी जानते थे उनसे लगभग हर दिन उधार मांगा नमक, चीनी हम कभी नहीं लौटा पाएंगे. मां अब बूढ़ी हो गई है, और बहुत सारी शारीरिक परेशानियों ने उन्हें घेर लिया है.

मैं दिन भर रिक्शा चलाकर हर महीने उनकी दवा, खाने के लिए 4-5 हज़ार टका भेजता हूं. काम के साथ-साथ दिन में पांच बार इबादत के दौरान मां की सेहत के लिए दुआ मांगना कभी नहीं भूलता.

बचपन में ही पिता की मौत हो गई थी. परिवार में मां के पास मेरे अलावा चार और बेटियां थीं. पिछले 20 सालों से मैं परिवार के लिए काम कर रहा हूं. 9 साल की उम्र से हर दिन कम से कम 15 टका कमाने की कोशिश रही. मैं खेलने या किसी अरमान को पूरा करने के लिए नहीं, ज़्यादा पैसा कमाने के लिए बड़ा होना चाहता था.

दो बड़ी बहनों की शादियां कर दीं और छोटी बहनें स्कूल जा रही हैं. हर सुबह की इबादत मुझे कुछ और घंटे रिक्शा चलाने की क़ुव्वत देती है.

मैं ख़ुद तो स्कूल न जा सका, लेकिन बहनों की उम्मीदों पर खरा उतरना चाहता हूं. उनके ख़्वाबों को पूरा करने के लिए हर दिन कुछ ज़्यादा घंटे रिक्शा खींचने की कोशिश करता हूं.

मां ही मेरी दौलत हैं. उनके बग़ैर मैं कुछ भी नहीं. पिछली बार मां से मिलने गया तो उनके लिए हरे रंग की साड़ी ले गया था. सब्ज़ रंग पहनना उन्हें बेहद पसंद है. उसे देखकर वे खिल उठी थीं और उन्हें देखकर मैं.

 

 

तर्जुमा साभार -न्यूज़ 18 (नुरुन नबी की कहानी को फेसबुक पेज GMB Akash से लिया गया है )