आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता, फिर भारत में मुस्लिम और हिंदू आरोपियों के लिए अलग-अलग कानून क्यों?

मई में जब पूर्व पंजाब पुलिस के चीफ केपीएस गिल का निधन हुआ तो  भारत के लगभग सभी मुख्यधारा के राजनीतिक दलों के नेताओं ने मृतक को श्रद्धांजलि दी और उन्हें राष्ट्रीय नायक बताया। उनके मुताबिक गिल ने पंजाब में आतंकवाद को खत्म कर दिया था।

उनकी याद में एक समारोह आयोजित किया गया, राजनैतिक स्पेक्ट्रम के बाएं और दाएं दोनों ही पक्षों के नेताओं ने गिल के बारे पूरे जज़्बे के साथ भाषण दिया। इन में मनिंदरजीत सिंह बिट्टा शामिल हैं, जो कि एक आतंकवाद विरोधी कार्यकर्ता हैं।

उन्होंने गिल की आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई को जीवित रखने की कसम खाई। साथ ही सत्तारूढ़ हिंदू राष्ट्रवादी भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) और मार्क्सवादी नेता सीताराम येचुरी भी शामिल हुए।

गिल पंजाब पुलिस के महानिदेशक थे, जो 1 9 80 से लेकर 1990 के दशक के बीच खूनी संघर्ष का साक्षी था। यह एक समय था जब खलिस्तान (एक काल्पनिक सिख देश) के लिए आंदोलन अपने चरम पर था। सिख अतिवादी हिंदुओं और सिख समुदाय के भीतर उनके उदार आलोचकों के खिलाफ बड़े पैमाने पर हिंसा में शामिल थे।

जवाब में, भारतीय राज्य ने गिल जैसे अधिकारियों को आतंकवादियों से निपटने के लिए पूरी तरह छूट दी। क्रूर पुलिसकर्मियों को बारी-बारी से प्रमोशन्स के साथ पुरस्कृत किया गया। इस तरह पुलिस दमन के कारण काफी हद तक आतंकवाद खत्म हो गया।

राष्ट्रवाद से अंधे लोगों ने गिल को एक रक्षक के रूप में देखा, लेकिन वह एक और समर्पित पुलिस अधिकारी को नहीं देखेंगे, जिसने बिना किसी भेदभाव के हर तरह के आतंकवाद के नेटवर्क को तोड़ दिया था।

2008 में मुंबई पर हुए आतंकी हमले के दौरान हेमंत करकरे की मौत हो गई थी। इस्लामी चरमपंथियों को इस हमले का दोषी ठहराया गया। बताया गया कि हमलावर पाकिस्तान से आए थे और पूरे शहर को बंधक बनाने की फिराक़ में थे।

करकरे उस वक्त सुर्खियां में आए जब उन्होंने महाराष्ट्र में भारत को एक हिंदू राष्ट्र बनाने की मांग करने वाले आतंकवादियों की गतिविधियों का खुलासा किया। सितंबर 2008 में मालेगांव में हिंदू आतंकवादियों द्वारा किए गए एक बम विस्फोट में आठ लोग मारे गए थे और लगभग 100 लोग घायल हो गए थे।

पुलिस ने शुरुआत में इस हमले के पीछे इस्लामी चरमपंथियों का हाथ बताया, जबकि हमले में मुस्लिम समुदाय को ही निशाना बनाया गया था। लेकिन करकरे की निष्पक्ष और ईमानदार जांच ने असली अपराधियों को सलाखों के पीछे पहुंचा दिया।

हालांकि, करकरे को हिंदू संगठनों के आतंकवादियों को गिरफ्तार करने के लिए अपमान का सामना करना पड़ा। वह भाजपा और उसके समर्थकों के निशाने पर आ गए।

मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जो उस वक्त गुजरात के मुख्यमंत्री थे, वह भी हिंदू कट्टरपंथियों को बचाने में लग गए। चूंकि कांग्रेस पार्टी उस वक्त सत्ता में थी, इसलिए भाजपा और अन्य हिंदू संगठनों ने यह सुझाव देकर करकरे को बदनाम करने की कोशिश की कि हिंदू कट्टरपंथियों के खिलाफ मुकदमा राजनीतिक दबाव के तहत किया गया था। यह इस तथ्य के बावजूद था कि करकरे ख़ुद एक प्रथावादी हिंदू थे और वह सिर्फ अपनी नौकरी पेशेवर रूप से करने की कोशिश कर रहे थे।

नवंबर 2008 में करकरे की इस्लामी चरमपंथियों से लड़ते हुए मौत हो गई। कुछ लोगों का मानना था कि उन्हें राजनीतिक साजिश के तहत मार दिया गया। मोदी ने उनके परिवार के लिए एक बड़ी रकम पुरस्कार के रूप में पेश की, जिसे करकरे की विधवा ने ठुकरा दिया था।

2014 में जब मोदी प्रधान मंत्री बने और भाजपा ने पूर्ण बहूमत के साथ केंद्र में सत्ता पाई, तो मालेगांव मामले और आतंकवाद के इसी तरह के अन्य मामलों में अभियोजन पक्षों पर दबाव डालना शुरू हुआ। उन्हें आहिस्ता चलने के लिए कहा गया।

राष्ट्रीय जांच एजेंसी ने अदालतों में करकरे की जांच पर ही सवाल खड़े कर दिए। न्यायाधीशों को बताया गया कि सबूतो की जांच दबाव में हुई थी।

जब संदिग्धों में से एक सैन्य अधिकारी लेफ्टिनेंट कर्नल श्रीकांत पुरोहित को हाल ही में जमानत मिल गई, तो बीजेपी ने सार्वजनिक रूप से करकरे को बदनाम करना शुरू कर दिया।

यह केवल भारतीय राष्ट्रवाद के दोहरे मानकों को दर्शाता है जो हकीकत में धर्मनिरपेक्षता और समानता के सिद्धांतों पर आधारित है, लेकिन बीजेपी के शासन में इसकी रिवायत पूरी तरह से बदल गई है। जो कोई हिंदू प्रधान भारत में बहुसंख्यक आतंकवाद को चुनौती देने की हिम्मत करता है, उसे वह सम्मान नहीं मिलेगा, जो गिल जैसे पुलिस अधिकारियों को मिला।

लेखकः गुरप्रीत सिंह