ISIS की ज़ुल्म से बचकर लौटी नादिया मुराद नोबेल अवॉर्ड की लिस्ट में

नई दिल्ली : नोबेल अमन एवार्ड के नॉमिनेशन की मुद्दत सोमवार को पूरी हो गई। अब तक 200 लोगों का नॉमिनेशन हुआ, जिनमें से ज्यादातर के नाम नोबेल समिति ने ख़ुफ़िया रखे हैं। जिन नामांकन का खुलासा हो चुका है और जिनकी सबसे ज्यादा चर्चा हो रही है, उनमें पोप, आईएस की तशद्दुद की शिकार रेप मुतास्सिरा नादिया मुराद और अफगानिस्तान की महिला साइकिलिस्ट टीम चीफ हैं।

नार्वे के MP ने यजीदी औरत नादिया मुराद का नॉमिनेशन किया है, जबकि नोबेल विजेता डेसमंड टूटू ने पोप का नाम आगे बढ़ाया है। इटली के 118 सांसदों ने अफगानिस्तान की साइकिलिस्ट टीम को नोबेल देने की वकालत की है।

पिछले साल 18 अगस्त को 21 साल की नादिया ने un में सलामती कोंसिल के सामने अपनी दर्दनाक दास्तां सुनाई तो दुनिया रो पड़ी। नादिया ने बताया कि कैसे अगस्त 2014 को इराक के एक गांव से उसे 150 परिवारों और कई यजीदी लड़कियों के साथ अगवा कर लिया गया। फिर उसे आईएस के कब्जे वाले शहर मोसूल ले जाया गया, जहां वह तीन महीने तक आतंकियों की जिन्सी गुलाम रहीं।

उत्तरी इराक का एक जिला है, सिंजार। यहां भारी तादाद में यजीदी कम्युनिटी के लोग रहते हैं। नादिया सिंजार के छोटे से गांव कोचो में पली-बढ़ीं। गांव में केवल एक स्कूल था। गांव के सारे बच्चे यहीं पढ़ते थे। नादिया भी इसी स्कूल में पढ़ीं। इतिहास उनका पसंदीदा मज़्मून था। बड़ी होकर वह टीचर बनना चाहती थीं। भरा-पूरा परिवार था उनका। माता-पिता के अलावा छह भाई और उनके बच्चे, सब एक साथ रहते थे।

नादिया 20 साल की हो चुकी थी। इस बीच टीवी और अखबारों में इस्लामिक स्टेट के आतंक की खबरें आने लगी थीं। नकाबपोश आतंकियों के ज़रिये कत्लेआम के किस्से सबको डराने लगे। एक दिन गांव में आईएस का फरमान आया। सभी यजीदी इस्लाम मज़हब कुबूल करें या फि र खतरनाक अंजाम भुगतने को तैयार रहें। सबके मन में खौफ था, और गुस्सा भी। अपने मज़हब को छोड़कर इस्लाम कुबूल करना उन्हें मंजूर नहीं था। फिर एक दिन वही हुआ, जिसका डर था।

तारीख थी 15 अगस्त, 2014। आतंकियों ने धावा बोल दिया। गांववालों को पास के स्कूल में जमा होने को कहा गया। नादिया के माता-पिता, भाई, उनकी पत्नियां, बच्चे एक-दूसरे का हाथ थामे घर से निकले। सब चुप थे, पर उनके दिल तेजी से धड़क रहे थे। स्कूल परिसर में पहुंचने के बाद महिलाओं और पुरुषों को अलग कर दिया गया। महिलाओं को एक बस में बैठाया गया, जबकि पुरुषों को वहीं रुकने को कहा गया। नादिया बताती हैं, उन्होंने मेरे गांव के 300 से अधिक पुरुषों को एक लाइन में खड़ा करके मार दिया। मरने वालों में मेरे छह भाई भी थे।

आतंकियों ने गांव की उम्रदराज महिलाओं को भी मौत के घाट उतार दिया क्योंकि वे उनके किसी काम की नहीं थीं। नादिया और अन्य लड़कियों को मोसूल शहर ले जाया गया। वहां उन्हें एक इमारत में कैद कर दिया गया। कुछ लड़कियों ने खुद को बदसूरत दिखाने के लिए अपने बाल बिखेर लिए। एक लड़की ने तो कलाई की नस काटकर जान देने की कोशिश भी की। नादिया कहती हैं, आतंकियों के लिए लड़कियां युद्ध में जीती गई दौलत के समान हैं। वे हमें आपस में किसी वस्तु की तरह बांट रहे थे।

उस इमारत का मंजर खौफनाक था। दीवारों पर मौजूद खून के निशान मासूम लड़कियों पर हुए जुल्म की गवाही दे रहे थे। नादिया कहती हैं, कई लड़कियों ने छत से कूदकर खुद को खत्म कर लिया। मगर मेरे मन में हर पल बस एक ही ख्याल चल रहा था, वहां से कैसे भागा जाए? महिलाओं को उस इमारत में करीब तीन महीने तक रखा गया। हर दिन महिलाओं को बारी-बारी से शरिया कोर्ट में पेश किया जाता था। वहां उनकी फोटो खींचकर दीवारों पर चिपका दी जाती थीं, ताकि आतंकी उन्हें पहचानकर आपस में उनकी अदला-बदली कर सकें। फिर एक दिन नादिया की बारी आई। उन्हें कुछ अन्य महिलाओं के संग एक कमरे में बिठाया गया। नादिया के संग उनकी तीन भतीजियां भी थीं। एक आतंकी उनके सामने आया। उसने इशारे से नादिया को अपने करीब आने को कहा। नादिया बताती हैं, वह आदमी काफी मोटा था, लंबे बाल और घनी दाढ़ी। उसने मुझे खींचा, तो मैं चीखी। वह मुझे घसीटकर ग्राउंड फ्लोर पर ले गया।

नादिया गिड़गिड़ाती रहीं, मगर आतंकी उन्हें अपमानित करता रहा। इस बीच एक और आतंकी वहां आ गया। उसकी शक्ल-सूरत अपेक्षाकृत कम डरावनी थी। नादिया बताती हैं, पहले वाला आतंकी बिल्कुल राक्षस जैसा था। इसलिए मैंने दूसरे आतंकी के पैर पकड़ लिए। मैंने उससे कहा, मुझे उस क्रूर आदमी से बचा लो। मैं तुम्हारे संग चलने को तैयार हूं। इस तरह उन्हें उस राक्षस जैसे आतंकी से छुटकारा तो मिल गया, पर वह दूसरे आतंकी की गुलाम बन गईं। उसने नादिया को एक दूसरे कमरे में बंद कर दिया। फिर वह उन्हें अपने माता-पिता के घर ले गया। उसके घर का माहौल काफी रहस्यमय और डरावना था। नादिया ने एक बार वहां से भागने की कोशिश की, पर गार्ड ने पकड़ लिया। खूब पिटाई हुई उनकी। छह आतंकियों ने दरिंदगी की। उन्होंने तब तक प्रताडि़त किया, जब तक बेहोश नहीं हो गईं।

अब हर रात यूं ही बीतने लगी। रोज-रोज की शारीरिक प्रताड़ना ने मानो नादिया के दिलो-दिमाग को फौलादी बना दिया था। अब वह पहले की तरह कमजोर और मासूम लड़की नहीं थीं। उनके अंदर आक्रोश पनप रहा था। सबसे बड़ी चुनौती थी, खुद को आजाद कराना। आखिरकार एक दिन उन्हें मौका मिल गया। वह कैदखाने से भाग निकलीं। छुपते-छुपाते मोसूल स्थित शरणार्थी कैंप पहुंचीं। नादिया कैदखाने से आजादी के बारे में ज्यादा कुछ खुलासा नहीं करना चाहतीं, क्योंकि ऐसा करने से वहां कैद बाकी लड़कियों को भारी नुकसान हो सकता है।