BHU में विरोध करती लड़कियों के शॉर्ट्स को जांघिया कहने वाला जुमला अंदर तक चीरता चला गया: कमाल खान

बीएचयू के गेट पर लड़कियों का हुजूम था… 18..19…20…22 साल की लड़कियां… जो कुछ जलते हुए सवालों के साथ जलती हुई सड़क पर बैठी थीं, कुछ गोल घेरे में खड़ी थीं. सबकी मुट्ठियाँ भिंची थीं और हवा में नारे लहरा रहे थे, “लड़ेंगे-लड़ेंगे..जीतेंगे-जीतेंगे.”  चेहरे पर ग़म और ग़ुस्सा था… जिस लड़के ने कैंपस में एक लड़की के कपड़े में हाथ डाल के बेइज़्ज़त किया उसके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई थी. वीसी ने लड़कियों से मिलने से इंकार कर दिया था. हमारे साथ खड़े वीसी के एक समर्थक ने हिक़ारत से उनकी तरफ देख के कहा, “माई घूंघट निकालेली, लईकी जांघिया पहन के नारा लगावेली’. यानी इनकी मां तो घूंघट निकालती  होंगी, लेकिन लड़की शॉर्ट्स पहन के नारे लगा रही है.”

उनका सबसे बड़ा ऐतराज़ यह था कि लड़की शॉर्ट्स कैसे पहन सकती है? नारे कैसे लगा सकती है? ज़ाहिर है कि उनका आदर्श उन लड़कियों की मां थीं जो उनके मुताबिक़ घूंघट निकालती होंगी. और जो शायद अपने साथ हुई हर छेड़छाड़ के बाद खामोश रही होगी. वह आवाज़ उठाती, विरोध करती लड़कियों के लिए इक मरदाना नफरत से इस क़दर भरे हुए थे वह उनके शॉर्ट्स को जांघिया कह रहे थे. उनका जुमला हमें कहीं अंदर तक चीरता चला गया. मुझे याद आया कि डॉ शेख अब्दुलाह ने 19वीं सदी के शुरू में अलीगढ़ में गर्ल्स कॉलेज खोला तो कुछ लोगों ने कहा था कि “रंडीखाना खोल रहे हैं.” अलीगढ़ विमेंस कॉलेज की स्थापना के क़रीब 100 साल बाद भी वही मध्ययुगीन सामंतवादी सोच यहां मौजूद थी.

इन सब के बीच बीएचयू में कई दिन गुज़ारने के बाद समझ में आया कि बीएचयू की लड़कियों की लड़ाई एक मध्ययुगीन सामंतवादी और पितृसत्तात्मक सोच के साथ है जिसे शॉर्ट्स पहनने वाली, सिगरेट पीने वाली, अपने फैसले लेने वाली, आँख में आँख डाल के बात करने वाली, “लड़ेंगे-लड़ेंगे , जीतेंगे-जीतेंगे “नारे लगाने वाली लड़की क़ुबूल नहीं है, क्योंकि उन्होंने अपनी मां और दादी को घूंघट निकाल के गोबर के उपले बनाते और दारू पी के आए अपने बाप और दादा से पिटते फिर भी पति के चरण छूते, उनके लिए व्रत रखते, उनके खाना खा लेने के बाद बचा हुआ खाना खाते और फिर भी पति को देवता मानते देखा है. उनकी मां उनके पिता की दोस्त और सोलमेट नहीं, उनकी दासी थीं. वे अभी भी खुद को देवता और लड़कियों को दासी समझ रहे हैं.

शायद इसीलिए लड़के बॉयज हॉस्टल में सारी रात आते-जाते हैं, लेकिन लड़कियों को 7 बजे वापस आने का हुक्म है. लड़के हॉस्टल में नॉन वेज खा सकते हैं, लड़कियों को इजाज़त नहीं. लड़के कुछ पहनें, न पहने कोई बोलने वाला नहीं, लड़कियां शॉर्ट्स पहनें तो अवेलेबल समझी जाती हैं. हालांकि जिस लड़की के साथ मोलेस्टेशन हुआ वह तो सलवार-कुर्ता पहने थी! लड़कियां कहती हैं कि वीसी कहते हैं कि “तुमलोग रात को क्या रेप करवाने बाहर जाती हो? और मोलेस्टेशन की शिकार लड़की ने जब गार्ड को जानकारी दी तो उसने कहा कि “जब रात को घूमोगी तो यही होगा.”

लड़कियां कहती हैं कि अच्छे कपड़े पहन लो तो लड़के कहते हैं कि “माल लग रही हो” लेकिन उन्हें मर्द का माल या मिलकियत समझने की सोच बहुत पुरानी है. त्रेता में मर्द उसकी अग्नि परीक्षा ले रहे थे, द्वापर में मर्द उसे जुए में हार गए थे, उन्नीसवीं सदी के शुरू में उसके स्कूल को रंडीखाना कहा गया. सत्तर के दशक में पाकीज़ा फिल्म में जिस मीना कुमारी से राजकुमार सुपर हिट डॉयलॉग बोल रहे थे कि, “आपके पांव देखे. बहुत हसीन हैं. इन्हें ज़मीन पर मत उतारियेगा मैले हो जाएंगे.”

वही मीना कुमारी असल ज़िंदगी में कमाल अमरोहवी के ग़ुस्से में दिये गए तलाक़ की शिकार हो गई थीं. 1987 में आई फिल्म “मिर्च मासाला” में गांवों के मुखिया सुरेश ओबराय से पत्नी दीप्ति नवल जब दूसरी औरत से रिश्ते रखने पर ऐतराज़ करती है तो वह कहते हैं कि, “अगर मुखी के दो चार रखैलें भी न हों तो ज़माना क्या कहेगा.” और 21वीं सदी शुरू होने के बाद पाकिस्तान के मीरवाला गांव में 33 साल की मुख़्तार माई को मस्तोई क़बीले की पंचायत ने सिर्फ इसलिए गैंग रेप की सजा सुनाई थी क्योंकि उसका 14 साल का भाई मस्तोई क़बीले की किसी लड़की से बात करता था. इसकी जड़ें इतनी गहरी हैं कि हमारे यहाँ क्लासिकल बंदिशों में भी औरत के ही लिबास पर दाग़ लगता है तभी गाते हैं कि “लगा चुनरी में दाग छुपाऊं कैसे, घर जाऊं कैसे, बाबुल से अँखियाँ मिलाऊँ कैसे.”

बनारस से लखनऊ लौटते हुए सड़क के दोनों तरफ औसतन हर 5 किलोमीटर पर हमें दुर्गा पूजा होते दिखी. हर बार उनकी मूर्तियां देख के ख्याल आता कि “काश हम दुर्गा को सिर्फ उनके बुत में क़ैद न रखते. काश उनकी शक्ति और शौर्य के कुछ अंश अपनी बच्चियों को ग्रहण करने देते.

(कमाल खान एनडीटीवी इंडिया के रेजिडेंट एडिटर हैं)