एबीवीपी की हिंसा के विरोध में और बोलने की आज़ादी के पक्ष में कल दिल्ली की सड़कों पर हज़ारों की संख्या में उतरने वाले लोग लोकतंत्र के पहरेदार हैं। वे सड़कों पर उतरे क्योंकि उन्हें सरकार को बताना था कि न तो युद्ध के ख़िलाफ़ बोलना देशद्रोह होता है और न ही सरकार के ख़िलाफ़ बोलना देश के ख़िलाफ़ बोलना होता है।
किसी पार्टी को यह अधिकार नहीं है कि वह देशप्रेम की अपनी परिभाषा पूरे देश पर थोपे। प्रोफ़ेसरों को पीटकर अस्पताल पहुँचाने वाले ‘देशभक्त संघियों’ से हमें देशभक्ति का सर्टिफ़िकेट नहीं चाहिए। वैसे भी जिन पर पहले अंग्रेजों की और अब पाकिस्तान की जासूसी का आरोप हो वो दुसरों को राष्ट्रभक्ति पर ज्ञान न दे तो बेहतर है| ख़ुद को दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी कहने वाली भाजपा 20 साल की गुरमेहर कौर की बेख़ौफ़ आवाज़ से डर गई।
शहीदों और उनके घरवालों का अपमान करने वाली पार्टी को देशप्रेम के बारे में एक शब्द कहने का भी नैतिक अधिकार नहीं है। लेकिन हम बोलने की उसकी आज़ादी का सम्मान करते हैं, भले ही उसके किसी शब्द का कोई मतलब नहीं होता।
हम शोषण और भेदभाव से आज़ादी की बात कहते हैं और भाजपा के समर्थक कैंपसों में लड़कियों को भद्दे इशारे करके उन्हें ‘आज़ादी देने’ की बात कहते हैं। उनकी आज़ादी और हमारी आज़ादी में यही अंतर है। हम बार-बार यह अंतर बताने के लिए सड़कों पर उतरते रहेंगे। कल की विरोध रैली में आई हज़ारों लड़कियों ने संघियों को आज़ादी का असली मतलब बता दिया। उन्हें मेरा सलाम।
नोट- यह लेख जेएनयू छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार की फेसबुक वॉल से लिए गया है। सियासत हिंदी ने इसे अपनी सोशल वाणी में जगह दी है।