पुरानी कहावत है कि कभी चोर कंबल को नहीं छोड़ता, तो कभी कंबल चोर को नहीं छोड़ता। आज के हालात पर कहावत का दूसरा हिस्सा ज़्यादा फिट नजर आता है। भाजपा और साम्प्रदायिकता में वही रिश्ता है, जो चोर और कंबल में होता है।
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सत्ता में आने के लिए भाजपा को साम्प्रदायिकता की सख्त ज़रूरत पड़ती है। यह एक एसी सच्चाई है, जिसे किसी तर्क और सबूत की ज़रूरत नहीं। इस देश में होने वाले सभी छोटे बड़े चुनाव इस रिश्ते के गवाह रहे हैं। अब तक यह देखा जाता रहा है कि सत्ता में आ जाने के बाद भाजपा साम्प्रदायिकता को, जिसका दूसरा नाम अल्पसंख्यकों से दुश्मनी, मगर असल नाम मुस्लिम दुश्मनी है, किसी अगले या दुसरे चुनाव तक के लिए तह करके रख दिया करती थी। लेकिन भाजपा और आरएसएस को, इस देश में सदियों से जिंदा साम्प्रदायिक सौहार्द के घूम फिर कर आ जाने की चलन ने, यह भरोसा दिलाया कि साम्प्रदायिकता उन्हें एक एक सीमा से आगे नहीं ले जा सकती।
राम मंदिर कि आंदोलन इस देश की सबसे बड़ी और सबसे आक्रमक साम्प्रदायिक आंदोलन थी। इस आंदोलन ने उन्हें सत्ता की दहलीज़ तक तो ज़रूर पहुंचाया, लेकिन यह सफर भी उसे कई बैसाखियों की मदद से तय करना पड़ा। 2014 में पहली बार आरएसएस ने भाजपा को साम्पदायिकता के कंबल के बजाय ‘विकास’ का चोला ओढा दिया। इस नई उपाय ने वह चमत्कार किया, जो शायद उसने भी नहीं सोचा था।
27 साल के बाद मिली जुली सरकारों का दौर एकदम से खत्म हो गया। भाजपा को अपने ही बल पर 280 सीटें मिल गईं। सेकुलर तत्व भी दुविधा में पड़ गए। भाजपा की साम्पदायिकता की विरोध कैसे की जाए? यह विरोध तो और भी उलटी पड़ सकती थी। लेकिन अब इसको क्या किया जाये कि आरएसएस और भाजपा को यह खबर नहीं थी कि ‘विकास’ एक अच्छा नारा ज़रूर था, लेकिन उस पर अमल करना उनके बस की बात नहीं थी।