जन्मदिन विशेष- कौन थे अकबर इलाहाबादी, जिन्हें ब्रिटिश सरकार ने खान बहादुर की उपाधि से नवाज़ा था

16 नवंबर 1846 की पैदाइश और 15 फरवरी सन 1921 को दुनिया से रुख्सती. इलाहाबाद में जन्मे, इलाहाबाद में मरे. इसीलिए ताउम्र इलाहाबादी रहे. असली नाम था सैयद हुसैन. समाज को आइने की चकाचौंध में रखने वाले दमदार शायर के अलावा वो सरकारी आदमी थे भाई. वकालत की पढ़ाई की थी. इलाहाबाद हाईकोर्ट के सेशन जज रहे.

उनका एक किस्सा बड़ा मशहूर है. जो ये दिखाता है कि वो खुद हाई एजूकेटेड थे. लेकिन डिग्री को गर्द बराबर समझते थे. डिग्री से न हुनर आता है न तमीज. ऐसी उनकी समझ थी. इसलिए डिग्री की धौंस दिखाने वालों को हमेशा निशाने पर रखते थे. एक बार एक हजरत उनके घर पहुंचे. अंग्रेजी में छपा विजिटिंग कार्ड था उनके पास. जिसमें नीचे फाउंटेन पेन से लिखा था बीए पास. तो अकबर साहब के घर वो विजिटिंग कार्ड पहुंचाकर इंतजार करने लगे. थोड़ी देर में अंदर से पर्ची आई. लिखा था.

शेख जी निकले न घर से और ये फरमा दिया
आप बीए पास हैं तो बंदा बीवी पास है

माने हुजूर बेगम की खिदमत में हैं अभी. डिस्टर्ब न करें, तशरीफ ले जाएं. मुसलमानों के अंदर फैली कूड़मगजी से उनको चिढ़ थी. बहुत ज्यादा. उनको लिबरल बनाने के लिए ताउम्र कलम घिसते रहे. अमूमन जज का फर्ज़ फैसला सुनाने का होता है. लेकिन सीढ़ी तो वकालत से होकर जाती है न. तो सवाल पूछने की अदा न भूले थे. धरती पर जीवन के विकास का सिद्धांत देने वाले चार्ल्स डार्विन को भी नहीं छोड़ा था. न मानो तो खुद पढ़ो.

अकबर ने अपनी प्राथमिक शिक्षा अपने पिता द्वरा घर पे ही ग्रहन की। उन्होंने 15 साल की उम्र में अपने दो या तीन साल वरिष्ठ लड़की से शादी की थी और जल्द ही उन्की दूसरी शादी भी हुइ। दोंनो पत्नीयों से अकबर के २-२ पुत्र थे। अकबर ने वकालत की अध्ययन करने के बाद बतौर सरकारी कर्मचारी कार्य किया।

 

हालांकि अकबर एक अनिवार्य रूप से एक जीवंत, आशावादी कवि थे, उसके बाद के जीवन में चीजों के बारे में उनकी दृष्टि घर पर उसकी त्रासदी के अनुभव से घिर गई थी। उन्के बेटे और पोते का निधन कम उम्र में ही हो गया। यह उसके लिये बड़ा झटका था और निराशा का कारण बना। फलस्वरूप वह अपने जीवन के अंत की ओर काफी, वश में हो गया और तेजी से चिंताग्रस्त और धार्मिक होने लगे थे। व ७५ साल की उम्र में १९२१ में अकबर की मृत्यु हो गई

अकबर एक शानदार, तर्कशील, मिलनसार आदमी थे। और उनकी कविता हास्य की एक उल्लेखनीय भावना के साथ कविता की पहचान थी। वो चाहे गजल, नजम, रुबाई या क़ित हो उनका अपना ही एक अलग अन्दाज़ था। वह एक समाज सुधारक थे और उनके सुधारवादी उत्साह बुद्धि और हास्य के माध्यम से काम किया था। शायद ही जीवन का कोई पहलू है जो उन्के व्यंग्य की निगाहों से बच गया था।

आज बात होती है नारी सशक्तिकरण की. बेटी पढ़ाओ बेटी बचाओ. सेल्फी विद डॉटर. एक तरफ उनको ऊपर लाने की बात होती है. दूसरी तरफ परदे, घूंघट, बुरके में बंद करने की तरकीबों पर तर्क किए जाते हैं. पहले उनकी कंडिशनिंग की जाती है. कि परदेदारी उनकी आदत बन जाए. फिर उसे उनकी मर्जी कहकर आजादी का लॉजिक ही गायब कर दिया जाता है. ये अभी तक मौजूद है. जबकि इसे मिटाने की कोशिश अकबर इलाहाबादी सौ साल पहले कर गए.

बेपर्दा नज़र आईं जो कल चंद बीवियां

अकबर ज़मीं में हैरते क़ौमी से गड़ गया

पूछा जो उनसे आपका परदा वो क्या हुआ

कहने लगीं कि अक्ल पे मर्दों की पड़ गया

 

किस किस अदा से तूने जलवा दिखा के मारा
आज़ाद हो चुके थे, बन्दा बना के मारा

अव्वल बनाके पुतला, पुतले में जान डाली

फिर उसको ख़ुद क़ज़ाकी सूरत में आके मारा

आँखों में येरी ज़ालिम छुरयाँ छुपी हुई हैं
देखा जिधर को तूने पलकें उठाके मारा

ग़ुंचों में आके मेहका, बुल्बुल में जाके चेहेका
इसको हँसा के मारा, उसको रुला के मारा
सोसन की तरह अकबर, ख़ामोश हैं यहाँ पर
नरगिस में इसने छिप कर आँखें लड़ा के मारा

2. कट गई झगड़े में सारी रात वस्ल-ए-यार की
शाम को बोसा लिया था, सुबह तक तकरार की

ज़िन्दगी मुमकिन नहीं अब आशिक़-ए-बीमार की
छिद गई हैं बरछियाँ दिल में निगाह-ए-यार की
हम जो कहते थे न जाना बज़्म में अग़यार की
देख लो नीची निगाहें होगईं सरकार की

ज़हर देता है तो दे, ज़ालिम मगर तसकीन को
इसमें कुछ तो चाशनी हो शरब-ए-दीदार की

बाद मरने के मिली जन्नत ख़ुदा का शुक्र है
मुझको दफ़नाया रफ़ीक़ों ने गली में यार की
लूटते हैं देखने वाले निगाहों से मज़े
आपका जोबन मिठाई बन गया बाज़ार की

थूक दो ग़ुस्सा, फिर ऐसा वक़्त आए या न आए
आओ मिल बैठो के दो-दो बात कर लें प्यार की

हाल-ए-अकबर देख कर बोले बुरी है दोस्ती
ऐसे रुसवाई, ऐसे रिन्द, ऐसे ख़ुदाई ख़्वार की
3. कहाँ ले जाऊँ दिल दोनों जहाँ में इसकी मुश्किल है
यहाँ परियों का मजमा है, वहाँ हूरों की मेहफ़िल है

इलाही कैसी कैसी सूरतें तूने बनाई हैं,
के हर सूरत कलेजे से लगा लेने के क़ाबिल है।

ये दिल लेते ही शीशे की तरह पत्थर पे दे मारा मैं कहता रह गया ज़ालिम मेरा दिल है, मेरा दिल है

जो देखा अक्स आईने में अपना बोले झुंजलाकर
अरे तू कौन है, हट सामने से क्यों मुक़ाबिल है

हज़ारों दिल मसल कर पांओ से झुंजला के फ़रमाया
लो पहचानो तुम्हारा इन दिलों में कौन सा दिल है
4. शक्ल जब बस गई आँखों में तो छुपना कैसा
दिल में घर करके मेरी जान ये परदा कैसा

आप मौजूद हैं हाज़िर है ये सामान-ए-निशात
उज़्र सब तै हैं बस अब वादा-ए-फ़रदा कैसा

तेरी आँखों की जो तारीफ़ सुनी है मुझसे
घूरती है मुझे ये नर्गिस-ए-शेहला कैसा
ऎ मसीहा यूँ ही करते हैं मरीज़ों का इलाज
कुछ न पूछा के है बीमार हमारा कैसा

क्या कहा तुमने के हम जाते हैं दिल अपना संभाल
ये तड़प कर निकल आएगा संभलना कैसा