असम में सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर और उसकी निगरानी में साल 2015 में एनआरसी को अपडेट करने का काम शुरू हुआ था. एनआरसी के तहत 25 मार्च 1971 से पहले बांग्लादेश से भारत आने वाले लोगों को स्थानीय नागरिक माना जा रहा है.
देश के विभाजन के बाद तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान से आने वाले अवैध आप्रवासियों की पहचान के लिए राज्य में 1951 में पहली बार एनआरसी को अपडेट किया गया था.
उसके बाद भी बांग्लादेश से होने वाली घुसपैठ लगातार जारी रही. खासकर 1971 के बाद यहां इतनी भारी तादाद में शरणार्थी पहुंचे की राज्य में आबादी का स्वरूप ही बदलने लगा. उसी वजह से अखिल असम छात्र संघ (आसू) ने अस्सी के दशक की शुरुआत में असम आंदोलन शुरू किया.
लगभग छह साल तक चले इस आंदोलन के बाद 1985 में असम समझौते पर हस्ताक्षर किए गए थे. उस समझौते में अवैध आप्रवासियों की पहचान के लिए एनआरसी को अपडेट करने का प्रावधान था लेकिन किसी न किसी वजह से यह मामला लंबे अरसे तक लटका रहा.
ध्यान रहे कि घुसपैठियों को बाहर निकालने के मकसद से सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में शुरू हुई एनआरसी की प्रक्रिया शुरू से ही विवादों में रही है. इसके तहत सेना के कई पूर्व अधिकारियों को नागरिकता साबित करने का नोटिस भेजा गया और उनमें से कुछ को विदेशी भी घोषित कर दिया गया. विदेशी न्यायाधिकरण के समक्ष मामला लंबित होने की वजह से एनआरसी के अंतिम मसौदे में उनके नाम शामिल नहीं किए गए.
एनआरसी के तहत जो लोग यह साबित नहीं कर सकते कि वे या उनके पूर्वज 24 मार्च 1971 से पहले असम में आए हैं, उन्हें विदेशी घोषित कर दिया जाएगा. राज्य में ऐसे लोगों के लिए बने डिटेंशन सेंटर में हजारों लोग सूने भविष्य के साथ जी रहे हैं. बीते साल 30 जुलाई को प्रकाशित एनआरसी के अंतिम मसौदे में 40 लाख लोगों को जगह नहीं मिली थी. उस पर हंगामा होने के बाद सरकार ने नए सिरे से दावों और आपत्तियों के लिए इन लोगों को समय दिया था. लेकिन अब तक 30 लाख लोग ही दावे पेश कर सके हैं. कोई भी व्यक्ति या संगठन एनआरसी में शामिल नामों के खिलाफ भी आपत्ति जता सकता है.
ताजा मामले के बाद सुप्रीम कोर्ट ने असम में एनआरसी के संयोजक प्रतीक हाजेला को उन लोगों के दावों की निष्पक्ष सुनवाई का निर्देश दिया है जिनके नाम अंतिम मसौदे में शामिल नहीं हैं.
लेकिन अदालत ने अंतिम सूची प्रकाशित करने की तारीख आगे बढ़ाने से इंकार करते हुए हर हाल में इसे 31 जुलाई तक प्रकाशित करने को कहा है.
मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने कहा, “मीडिया में आने वाली खबरें चिंताजनक हैं. इनसे पता चलता है कि आपत्तियों व दावों को बिना समुचित सुनवाई के हड़बड़ी में निपटाया जा रहा है.” उन्होंने कहा कि प्रकाशन की तारीख नजदीक आने का मतलब यह नहीं है कि “शॉर्ट कट” अपनाते हुए दावों को दरकिनार कर दिया जाए.
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि ताजा मामले से साफ है कि एनआरसी की कवायद बिना किसी ठोस प्रक्रिया के निपटाई जा रही है. राजनीतिक विश्लेषक जितेन महंत कहते हैं, “ऐसे मामलों से इस कवायद की निष्पक्षता पर सवाल उठना स्वाभाविक है. सनाउल्लाह का मामला अकेला नहीं है.” ऐसे में अंतिम सूची के प्रकाशन के बाद भी इस मुद्दे पर विवाद तेज होने के आसार हैं.
साभार- डी डब्ल्यू हिन्दी