इस्लाम के पहले दुखी और कष्टपुर्ण वैवाहिक जीवन को समाप्त करके पति पत्नी के अलग अलग सुखी जीवन जीने का कोई वैज्ञानिक उपाय किसी मज़हब में नहीं था।
इस्लाम ने ही दुनिया को यह व्यवस्था दी है कि यदि कोई वैवाहिक जीवन से ख़ुश नहीं है तो वह इस प्रक्रिया को अपना कर अलग हो जाए और फिर से किसी अन्य के साथ अपना सुखी सुखी वैवाहिक जीवन व्यतीत करे।
इस्लाम ने ही बेटियों को उनके पिता की संपत्ति में सबसे पहले अधिकार दिलाया है , तलाकशुदा और विधवा महिलाओं को सम्मान देकर पुरुषों को उनसे विवाह करने के लिए प्रेरित किया है , सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम हज़रत मुहम्मद ने ऐसी तलाकशुदा और विधवा महिलाओं से खुद विवाह करके अपने मानने वालों को दिखाया कि देखो मैं कर रहा हूँ , तुम भी करो , मैं सम्मान और हक दे रहा हूँ तुम भी दो , मुसलमानों के लिए विधवा और तलाकशुदा औरतों से विवाह करना हुजूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की एक सुन्नत पूरी करना है जो बहुत पुण्य का काम है।
भारत में ही विधवाओं को पति की चिता में सती कर देने की व्यवस्था थी तो उसी भारत में जीवित रह गयी विधवाओं और विधुरों के लिए क्या व्यवस्था थी ? नियोग प्रथा
नियोग प्रथा :-
विधवा औरत और विधुर मर्द को अपने जीवन साथी की मौत के बाद पुनर्विवाह करने से वेदों के आधार पर रोक और बिना दोबारा विवाह किये ही दोनों को `नियोग´ द्वारा सन्तान उत्पन्न करने की व्यवस्था है।
एक विधवा स्त्री बच्चे पैदा करने के लिए वेदानुसार दस पुरूषों के साथ `नियोग´ कर सकती है और ऐसे ही एक विधुर मर्द भी दस स्त्रियों के साथ `नियोग´ कर सकता है।
बल्कि यदि पति बच्चा पैदा करने के लायक़ न हो तो पत्नि अपने पति की इजाज़त से उसके जीते जी भी अन्य पुरूष से `नियोग´ कर सकती है , बिना विवाह के।
( ऋग्वेद मं.१०,सू.८५ मं.४५) अर्थात : हे वीर्य सिंचन में समर्थ ऐश्वर्य युक्त पुरुष. तू इस विवाहित स्त्री व विधवा स्त्रियों को श्रेष्ठ पुत्र और सौभाग्युक्त कर. इस विवाहित स्त्री में दश पुत्र उतन्न कर और ग्यारहवीं स्त्री को मान. हे स्त्री ! तू भी विवाहित पुरुष से दस संतान उत्पन्न कर और ग्यारहवें पति को समझ.घी लेप कर नियोग करो
ध्यान दीजिए कि जिस धर्म या व्यवस्था में बदलाव की आवश्यकता होती है बदलाव उसी में होता भी है। जिस जिस धर्म और उसकी व्यवस्था में बदलाव हुए तो इसलिए कि उनमें समय के साथ बदलाव ही अंतिम विकल्प था , इस्लाम इसी लिए 1400 साल से अपरिवर्तित है क्युँकि इसकी बताई व्यवस्थाएँ कयामत तक के लिए हैं। मतलब “नो चेन्ज”।
ज़रा सोचिएगा कि एक दंपत्ति जिनका दांपत्य जीवन कटुता और विष से भरा है तो उसके पास किसी अन्य धर्म के अनुसार अलग-अलग सुखमय जीवन जीने का क्या विकल्प है ?
कोई नहीं , ना सनातन ना ईसाई ना सिख
यह व्यवस्था केवल इस्लाम में है
अदालतों में क्या होता है ?
पति न्यायाधीश और वकीलों तथा रिश्तेदारों की उपस्थित में अपनी पत्नी के चाल चरित्र से लेकर स्वभाव तक का गलत सही आरोप लगाता है , उसे कुलटा कलमुही और कुलच्छनी साबित करता है , गैर मर्द के साथ उसके हमबिस्तर होने की झूठी सच्ची गवाही दिलाता है।
यही पत्नी भी करती है , वह अपने पति को नामर्द और शारीरिक संतुष्टि ना देने वाला सिद्ध करती है , अलग अलग महिलाओं से उसके नाजायज़ संबंध सिद्ध करती है , मारपीट करने वाला सिद्ध करती है।
फिर न्यायाधीश भी उकता कर दोनों को अलग होने का फैसला सुना देता है ।
दोनों अलग हो जाते हैं पर उनको मिलता क्या है ? उन दोनों पर एक दूसरे के लगाए झूठे सच्चे आरोप उनके अगले वैवाहिक जीवन की संभावना को समाप्त कर देते हैं।
अदालत में एक दूसरे को नंगा कर के पाए तलाक उनके लिए जीवन भर के लिए काल बन जाते हैं और पुनर्विवाह के हर शुरुआती बातचीत का अंत कर देते हैं।
इसीलिये पत्नी को जलाकर मार देना या लटका देना पतियों को एक बेहतर विकल्प लगता है और ऐसी घटनाएँ बहुतायत में होती हैं।
सोचिए कि कौन सी स्थिति बेहतर है ? एक कमरे में पति पत्नी का चुपचाप इस्लामिक पद्धति से अलग हो जाना या नंगानाच करके अलग होना।
आप चिढ़ में इस्लामिक व्यवस्थाओं को लाख बुरा कहिए परन्तु एक ना एक दिन आपको इसे अपनाना ही पड़ेगा , उच्चतम न्यायालय भी हिन्दुओं को तलाक की अनुमति दे चुकी है।
नियोग की समाप्ति , विधवा विवाह , सतीप्रथा की समाप्ति , बेटियों को पिता की संपत्ति में अधिकार , तलाकशुदा का विवाह , और तलाक , यह सब इस्लाम की प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष व्यवस्थाओं से प्रेरित होने के कारण ही अन्य धर्म के लोग अपना रहे हैं।
बाकी आप गाली देते रहो कोई फर्क नहीं पड़ने वाला।
(ये आर्टिकल मोहम्मद ज़ाहिद की फेसबुक वाल से लिया गया है)