हैदराबाद : उत्तर भारत में हमेशा बेवकूफ कि तरह फिल्मों पर विरोध, चिकन, बीफ, दलित, मुस्लिम, मंदिर, नमाज पर विरोध रहे हैं और लगातार इन्हीं मुद्दों पर विरोध प्रदर्शन और हिंसा तक हुई है इसके उलट अगर आप दक्षिण भारत कि बात करें तो वहाँ भी विरोध प्रदर्शन हुई है पर इस तरह उत्तर भारत के मुद्दों को लेकर नहीं बल्कि वायू प्रदूषण, कट रहे पेड़ और वातावरण को हो रहे नुकसान को लेकर हुए हैं। अगर आप उत्तरी और दक्षिणी भारत के पिछले 3-4 सालों के विरोध प्रदर्शन पर गौर करें तो आपको सारी सच्चाई सामने आ जाएगी।
दो दिन पहले 3 महीनों से तमिलनाडु के तूतीकोरिन में हुए हिंसक प्रदर्शनों में अभी तक 13 लोग मारे जा चुके इस पर भी गौर करने की जरूरत है की आखिर ये प्रदर्शन क्यों हो रहे थे, तो आपको जानकारी के लिए बता दूँ की वायु प्रदूषण के लिए ये प्रदर्शन पिछले तीन महीने से चल रहे थे। विकास या हिंसा जातिवाद क्या चाहिए आपको पूरे हिंदुस्तान को एक बार फिर से सोंचने की जरूरत है।
टूटी सड़कों की मरम्मत न किए जाने से हताश एक कलाकार ने बैंगलुरु में शहर की मुख्य सड़क पर पानी से भरे गड्ढे में 20 किलो का एक असली लगने वाला मगरमच्छ बनाया था इस कलाकृति ने लोगों को ध्यान खींचा, लेकिन इससे सुस्त नौकरशाही हरक़त में आई और एक दिन बाद ही सड़क की मरम्मत करने वाले कर्मचारी भी आ गए.
1970 के दशक में भारत के कई हिस्सों में पेड़ों को बचाने के लिए चिपको आंदोलन हुआ था. इसकी शुरुआत उत्तर भारत के पहाड़ी इलाक़ों में शुरू हुई, जहां लोग अपनी आजीविका के लिए जंगलों पर निर्भर थे. ठेकेदारों से पेड़ों को बचाने के लिए सामाजिक कार्यकर्ता, ग्रामीण, औरतें, बच्चे पेड़ों के चारों ओर घेरा बना लेते थे. जंगलों को बचाने का यह अनोखा आंदोलन बाद के दिनों में दुनिया के अन्य हिस्सों में भी अपनाया गया. इस किस्म का विरोध प्रदर्शन उत्तर भारत में आखिर कहाँ गुम हो गई है।
कहने का तात्पर्य यह है कि लोकतंत्र में विरोध प्रदर्शन तो जायज है और ये हमारा हक़ भी है पर विरोध-प्रदर्शन के लिए हमारी प्राथमिकता क्या हो इसपर ध्यान देने कि जरूरत है और जरूरत पड़े तो दक्षिण भारत से सीख लें।
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