दशकों बाद पूर्वोत्तर के सात राज्य और पश्चिम बंगाल लोकसभा चुनाव के दौरान राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र में थे। पश्चिम बंगाल तृणमूल बनाम भाजपा की तीखी जंग का गवाह बना। जबकि पूर्वोत्तर में भाजपा और कांग्रेस चुनावी मैदान में आमने-सामने थीं।
अमर उजाला पर छपी खबर के अनुसार, नतीजों ने साबित किया, पूर्वोत्तर में भाजपा का जादू मतदाताआें के सिर चढ़कर बोला तो पश्चिम बंगाल में उसने टीएमसी के लिए खतरे की घंटी बजा दी।
प्रदेश में विरोधी लहर को भांपने में ममता बनर्जी पूरी तरह नाकाम रही। मोदी है तो मुमकिन है का नारा बंगाल में भाजपा की जीत के साथ इस कदर फिट बैठ रहा है कि ममता द्वारा सूबे में की गई किलेबंदी भी कोई काम नहीं आई।
इसके साथ ही आजादी के बाद पहली बार बंगाल से वाम दलों का भी सफाया हो गया। वहीं, 2014 में 2 सीट पाने वाली भाजपा छलांग लगाकर 18 पर पहुंच गई। जबकि कांग्रेस दो सीट पाकर जैसे-तैसे अपनी साख ही बचा सकी।
अबकी माकपा के ज्यादातर वोटरों ने तृणमूल के विकल्प के तौर पर भाजपा पर ही भरोसा जताया है। वैसे, हाल में पूर्व मुख्यमंत्री और माकपा के वरिष्ठ नेता बुद्धदेव भट्टाचार्य ने भी यह अंदेशा जताया था। नतीजों से साफ है कि उनका अंदेशा सच साबित हुआ है।
इधर, तृणमूल कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व भले ही कुछ भी दावा करे, लेकिन जिला स्तर के नेताओं का कहना है कि पार्टी के खिलाफ भीतर भी आक्रोश था, जिसे शीर्ष नेतृत्व भांप नहीं पाया।
इसके अलावा नागरिकता (संशोधन) विधेयक और एनआरसी जैसे मुद्दे भी असरदार साबित हुए। भाजपा ने उम्मीद के मुताबिक जंगलमहल के नाम से कुख्यात रहे बांकुड़ा, पुरुलिया और झाड़ग्राम इलाकों में बेहतर प्रदर्शन किया है।
उत्तर बंगाल में दार्जिलिंग, जलपाईगुड़ी और अलीपुरदुआर जैसी सीटों पर अजेय बढ़त बना पार्टी ने साफ कर दिया है कि बंगाल के लोग तृणमूल कांग्रेस के विकल्प के तौर पर उसे ही देख रहे हैं। हालांकि, शाह के रोड शो में हुई हिंसा के बाद हुए आिख्ारी चरण के मतदान में भाजपा को कोई फायदा नहीं हुआ।