विधानसभा चुनाव से ठीक पहले कांग्रेस की कर्णाटक सरकार ने बड़ा दांव खेला है। सिद्धारमैया सरकार ने लिंगायत समुदाय को अलग धर्म का दर्जा देने की सिफारिश मंजूर कर ली है। लिंगायत समुदाय वर्षों से हिंदू धर्म से अलग होने की मांग करता रहा है। समुदाय की मांगों पर विचार के लिए नागमोहन दास समिति गठित की गई थी। राज्य कैबिनेट ने समिति की सिफारिशों को स्वीकार कर लिया है। कर्नाटक ने इस प्रस्ताव को अंतिम स्वीकृति के लिए केंद्र के पास भेजा है। राज्य की कांग्रेस सरकार ने लिंगायत समुदाय को अलग धर्म का दर्जा देने का फैसला ऐसे समय किया है, जब अप्रैल-मई में विधानसभा के चुनाव होने हैं। लिंगायत समुदाय दशकों से भाजपा का समर्थन करता रहा है। हिंदू से अलग धर्म का दर्जा देने पर पर राज्य में भाजपा का मजबूत वोट बैंक खिसक सकता है। लिंगायत को कर्नाटक में फिलहाल ओबीसी का दर्जा मिला हुआ है। कर्नाटक में इस समुदाय की आबादी 10 से 17 फीसद है। लिंगायत का विधानसभा की तकरीबन 100 सीटों पर प्रभाव माना जाता है। कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री और भाजपा के वरिष्ठ नेता बीएस येदियुरप्पा इसी समुदाय से आते हैं। शिवराज सिंह चौहान भी लिंगायत हैं। लिंगायत समुदाय के प्रतिनिधि रविवार (18 मार्च) को मुख्यमंत्री से मिलकर समिति की सिफारिशों को लागू करने की मांग की थी, जिसे सोमवार (19 मार्च) को स्वीकार कर लिया।
Karnataka Govt has accepted suggestions of Nagbhushan committee; cabinet has given nod to the recommendation of separate religion for Lingayat community pic.twitter.com/Q6cddBQ7ix
— ANI (@ANI) March 19, 2018
बता दें की 1989 में जब कांग्रेस की सरकार बनी तो राजीव गांधी ने एक विवाद की वजह से चुने हुए सीएम पाटिल को पद से हटा दिया जिसके बाद लिंगायत समुदाय ने कांग्रेस का दामन छोड़कर रामकृष्ण हेगड़े का समर्थन किया।
हेगड़े के निधन के बाद बीजेपी के येदियुरप्पा लिंगायतों के नेता बने। लेकिन जब बीजेपी ने उन्हें सीएम पद से हटाया तो लिंगायत फिर नाराज हो गए और बीजेपी से मुंह मोड़ लिया क्योंकि येदियुरप्पा का लिंगायत समुदाय में अच्छा प्रभाव था।
इसलिए कर्नाटक में आने वाले चुनावों में कांग्रेस और बीजेपी दोनों ही लिंगायत समुदाय को अपनी ओर खींचने की कोशिश कर रहे हैं। बीजेपी ने येदियुरप्पा को एक बार फिर नेता बनाया है क्योंकि उनका लिंगायत समुदाय में जनाधार बहुत मजबूत है।
बहरहाल राज्य सरकार के इस फैसले का आगामी चुनाव में सत्ताधारी कांग्रेस सरकार को कितना फायदा होगा यह तो आने वाला वक्त ही तय करेगा।