लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ होने की आशंका

इन दिनों यह बात उठाई जा रही है कि क्यों न लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराए जाएँ, इस प्रस्ताव का समर्थन करने वालों की सबसे मज़बूत दलील यह है कि इस तरह चुनाव आयोजित कराने में होने वाले खर्च में काफी कमी आएगी और देश को हर साल कहीं न कहीं चुनाव में जाने से छुटकारा मिलेगी।

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यह प्रस्ताव पहली बार सामने नहीं आई है बल्कि पहले भी बहुत से फिकरमंदों और राजनीतिज्ञ ने ऐसे प्रस्ताव की समर्थन करते रहे हैं, लेकिन अब इस विषय की अहमियत इसलिए बढ़ गई है क्योंकि नये चुने गए चुनाव आयुक्त ओपी रावत ने अपना पद संभालने के बाद सबसे पहले यह ऐलान किया है कि अगर राजनितिक पार्टियों में आम सहमती हो जाता है तो चुनाव आयोग एक साथ लोकसभा और विधानसभा चुनाव कराने के लिए तैयार है।

सवाल यह पैदा होता है कि क्या एक साथ चुनाव आयोजित कराने के फायदा व नुकसान की समीक्षा करने की ज़रूरत नहीं है? क्या इस सिलसिले में कोई बहस हुई है, इसके नफा नुकसान का बारीकी से जायजा लिया जाए? क्या जनता और लोकतंत्र के मूल्यों की सुरक्षा की संघर्ष करने वाले लोग इसके लिए तैयार हैं? इन जैसे और भी कई सवाल हैं जिन पर गंभीरता से गौर करने के बाद अंतिम नतीजे तक पहुंचा जा सकता है।

लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ कराए जाने की वकालत अगर बहुत से बुद्धिजीवी करते रहे हैं लेकिन सबसे ज़्यादा जोर शोर से लाल कृष्ण अडवानी जी ने इस मुद्दे को उस समय उठाया था जब वह उप प्रधानमंत्री थे। उस समय भी अडवानी जी की इस ख्वाहिश पर टिप्पणी हुई थी।

अख्तरुल वासे