बांग्लादेश के शिविरों में रहने वाले लाखों रोहिंग्या शरणार्थी अपने बेहतर जीवन की दुआ के साथ ईद उल अज़हा का त्योहार मना रहे हैं। लोगों ने शिविरों में अस्थायी मस्जिदों में दुआ की। इस मौके पर बच्चों ने नये कपड़े पहने हुए थे।
मुस्लिमों ने ईद उल अजहा के मौके पर भेड़-बकरियों की कुरबानी दी और गरीबों के बीच मांस वितरित किया. उल्लेखनीय है कि म्यामां में सैन्य कार्रवाई के बाद पिछले वर्ष सात लाख से अधिक रोहिंग्याओं ने बांग्लादेश में शरण ली थी।

एक नवजात शिशु मां की बांहों में भीड़ को टुकुर-टुकुर देख रहा है। कुछ ही दूर पर लड़कियां लहक-लहक कर शादी के गीत गा रही हैं और एक दूसरे छोर पर कंबल पर लेटा एक बेजान जिस्म अपने आखिरी सफर का इंतजार कर रहा है।
रोहिंग्या शरणार्थियों की इस बस्ती की गंदी गलियों में जिंदगी कुछ इस तरह रवां दवां है। कई दशक पुरानी इस बस्ती में जिंदगी अपने सभी रूपों में मौजूद है। यह बस्ती को जिंदगी का एक एहसास, एक नाम और एक रूप दे रही है। रोहिंग्या 1970 के दशक के अंत में म्यानमार में हमलों से भाग कर झुंड के झुंड यहां पहुंचे थे।
तब दस लाख रोहिंग्या बेघर-बार बांग्लादेश की शरण में पहुंचे थे। शिनाख्त के नाम पर उनके पास कुछ नहीं था। ना वह म्यानमार के रहे जहां वे पैदा हुए और जहां वे पले और न ही वे बांग्लादेश के जहां की गंदी और तंग गलियों को अपना आशियाना बनाया।
ज्यादातर म्यानमार बेरोजगार है। दो जून की रोटी जुटाने के लिए न तो वे कहीं कानूनी रूप से काम कर सकते हैं और ना ही तालीम पा कर अपनी जिंदगी सुधार सकते हैं। वे आजादाना यहां-वहां घूम-फिर भी नहीं सकते. कॉक्स बाजार जिले के इन शिविरों में बच्चे इधर-उधर कूद-फांद करते मिल जाएंगे।
किसी भी अन्य बच्चे की तरह ये नटखट हैं और इनकी आंखों में चीजों को देखने-समझने-जानने की प्यास है, लेकिन ये आम बच्चे नहीं हैं। ज्यादातर बच्चे कुपोषित हैं। इनके कपड़े फटे-पुराने और गंदे हैं। इनमें से बहुत को स्कूल जाने का भी मौका नहीं मिला।