‘धर्म के मामले में खुद तो साहेब फजीहत करते हैं, लेकिन दूसरों को नसीहत देते हैं’

आज एक महत्वपूर्ण विषय पर चर्चा होगी और महत्वपूर्ण और कड़वे प्रश्न भी उठाऊँगा।

प्रश्न यह है कि धर्म की व्यवस्थाओं को बदलने का अधिकार क्या मनुष्य को है ?

आइये देखते हैं ।

यह सच है कि धर्म कभी ना कभी किसी ना किसी मनुष्य के माध्यम से ही धरती पर फैला , कुछ धर्म में ऐसे व्यक्ति को ईश्वर का अवतार कहा गया तो कुछ में ईश्वर का पुत्र तो कुछ में संदेशवाहक (पैगम्बर) तो कुछ में “गुरु”।

महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि सभी धर्म और उसकी व्यवस्थाओं को सात आसमान के ऊपर बैठे अल्लाह , ईश्वर और गाॅड के आदेश और उसकी बनाई और बताई व्यवस्था के रूप में ही अवतार , पैगम्बर , गुरू या ईश्वर के पुत्र ने दुनिया के सामने रखा।

सनातन धर्म को सबसे पुराना धर्म या पृथ्वी पर सबसे पहला धर्म उसके मानने वाले कहते हैं तो इस धर्म का आधार “वेद और पुराण” है । ऐसे ही इस्लाम का आधार “कुरान” , इसाई धर्म का आधार “बाईबल” और सिख धर्म का आधार “गुरूग्रन्थ साहेब” है। और इन धार्मिक ग्रन्थों को “ईश्वरीय आदेश” ही कहा गया है।

ऐसे ही अन्य सभी धर्म के ग्रन्थ हैं जिसे ईश्वर का आदेश कहा गया। सभी ग्रन्थों में ईश्वर की परिकल्पना है और पुण्य और पाप के आधार पर मृत्यु के पश्चात ऊपर “स्वर्ग और नरक” को भोगने की अनिवार्यता बताई गयी है।

सवाल यह है कि किसी धर्म का मानने वाला व्यक्ति “ईश्वरीय आदेश” को सुधार के नाम पर गलत कैसे कह सकता है ? जैसे “राजाराम मोहन राय” ने सनातन धर्म की सती प्रथा के विरुद्ध आंदोलन करके इसे बंद कराया तो क्या एक हिन्दू होने के कारण उनको अपने धर्म पर सवाल उठाने का अधिकार था ?

इस संदर्भ में अभी तक दो मत प्राप्त होते हैं , एक सनातन धर्म के मानने वाले लोगों के तो दूसरा इस्लाम के मानने वालों के।

सनातन धर्म के मानने वाले यह कहते रहे हैं कि “हिन्दू धर्म में समय के अनुसार “परिवर्तन” किया जाता है तो सवाल उठता ही है कि “ईश्वरीय आदेश” वेदों में वर्णित व्यवस्थाओं को मनुष्य कैसे बदल सकता है ?

यह कैसा ईश्वरीय आदेश कि उस ईश्वर को मानने वाला मनुष्य ही उससे इंकार करके ईश्वरीय आदेश को बदल रहा है कि यह गलत है। धर्म को परिवर्तित कैसे किया जा सकता है ? यह कैसी श्रृद्धा है जो अपने भगवन को ही गलत सिद्ध कर रही है ?

आइये समझते हैं ।

“वेद” ईश्वर द्वारा ऋषियों को सुनाया गया “ज्ञान” है जिसे ऋषियों ने लिपीबद्ध करके दुनिया के सामने प्रस्तुत किया , “वेद” “विद” शब्द से बना है जिसका अर्थ होता ही है “ज्ञान”।

वेद “पुरातन ज्ञान विज्ञान” का अथाह भंडार है। इसमें कहा गया है कि यह मानव की हर समस्या का समाधान है।

वेदों में ब्रह्म (ईश्वर), देवता, ब्रह्मांड, ज्योतिष, गणित, रसायन, औषधि, प्रकृति, खगोल, भूगोल, धार्मिक नियम, इतिहास, रीति-रिवाज आदि लगभग सभी विषयों से संबंधित ज्ञान भरा पड़ा है।

शतपथ ब्राह्मण के श्लोक के अनुसार अग्नि, वायु और सूर्य ने तपस्या की और ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद को प्राप्त किया।

प्रथम तीन वेदों को अग्नि, वायु, सूर्य (आदित्य), से जाना जाता है और संभवत: अथर्वदेव को अंगिरा से उत्पन्न माना जाता है।

एक ग्रंथ के अनुसार ब्रह्माजी के चारों मुख से वेदों की उत्पत्ति हुई।… वेद सबसे प्राचीनतम पुस्तक हैं जिसके अवतरित होने का समय कोई बता ही नहीं सकता।

वेद के चार विभाग हैं :-

ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद।

ऋगवेद :- स्थिति
यजुर्वेद :- रुपांतरण
सामवेद -गति‍शील और
अथर्ववेद- जड़।

ऋगवेद को धर्म, यजुर्वेद को मोक्ष, सामवेद को काम, अथर्ववेद को अर्थ भी कहा जाता है। इन्ही के आधार पर धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, कामशास्त्र और मोक्षशास्त्र की रचना हुई।

यहाँ सनातन धर्म के लोग धर्म आधारित परम्पराओं या वेद आधारित ईश्वरीय आदेश को खुद समय समय पर बदल देते हैं।

कुरान को उनके मानने वाले इसे “अल्लाह का हुक्म ” मानते हैं जो सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम हज़रत मुहम्मद के माध्यम से अल्लाह ने धरती पर रहने वाले इंसानों के लिए उतारा और उनका मानना है कि “कुरान” क़यामत तक के लिए है और इसे बदलना असंभव है। 1400 साल में आजतक एक शब्द बदला नहीं गया।

मेरा सवाल बस इतना सा है कि किसी व्यक्ति को अपने धर्म में कोई बुराई नजर आती है तो वह पूरा का पूरा धर्म त्याग दे , उसकी जगह वह उस ईश्वरीय आदेश में से कुछ को बदलने वाला होता कौन है ? किसने अधिकार दिया उसे कि वह किसी धर्म की फलाँ फलाँ बातों को अपनी सुविधानुसार नकार दे या स्विकार कर ले।

सनातनी को पूरे के पूरे “वेद और पुराण” के ईश्वरीय आदेश को क्युँ अपनाना नहीं चाहिए ?

एक उदाहरण

यदि “गणित” के किसी फार्मूले को आधा अधूरा किसी प्रश्न को हल करने के लिए अपनाया जाएगा तो क्या “उत्तर” सही प्राप्त होगा ? और यदि तुक्का लग कर सही उत्तर मिल भी गया तो क्या उसे इक्ज़ामिनर पूरे अंक देगा ? मेरे अनुभव के अनुसार “शून्य” देगा।

सवाल यह भी है कि क्या एक परिक्षार्थी को अपने प्रश्नपत्र के किसी प्रश्न को अपनी सुविधानुसार परिवर्तन करने का अधिकार है ?

नहीं , फिर आप धर्म की व्यवस्थाओं को बदलने का कैसे सोच सकते हैं ?

धर्म और उसकी व्यवस्थाओं में परिवर्तन गलत है जो ईश्वर , अल्लाह , गाड जैसी परम अदृश्य शक्तियों को चैलेंज करता है। माफ कीजिए जो लोग अपना नाम सही से नहीं लिख सकते वह हजारों हजार साल के वेद , कुरान , बाईबल में परिवर्तन करने वाले होते कौन हैं ? आपको नहीं पसंद छोड़ दीजिए ।

और नहीं तो आप तर्क देकर सही सिद्ध कीजिए। नहीं कर पाए तो यह उदाहरण मत दीजिए कि फलाँ धर्म में यह परिवर्तन हुआ , सीधी सी बात है कि आपने उस नियम को गलत माना जो ईश्वर के द्वारा आदेशित था और परिवर्तित किया।

सीधी सी बात है

अपने धर्म और उसकी बताई व्यवस्थाओं में परिवर्तन करके आप यह स्विकार कर रहे हैं कि आपके धर्म में कमी थी या आपमें इतना साहस और शक्ति नहीं कि अपने धर्म को पूरी तरह मान सकें इसलिए अपनी सुविधा नुसार उसमें परिवर्तन कर रहे हैं।

आप करिए परिवर्तन परन्तु यदि मुसलमानों को परिवर्तन स्वीकार नहीं तो आप होते कौन हैं दूसरे के धर्म और उसकी व्यवस्था पर सवाल उठाने वाले ?

खुद तो साहेब फजीहत और दूसरे को नसीहत।

  • मोहम्मद ज़ाहिद