नई दिल्ली: मुशायरा का रिवाज भारत में शायद इतना पुराना है जिस तरह की खुद उर्दू जुबान औरटी जिस तरह यह रिवाज पुराना है, और उतना आम भी है। यहाँ तक कि इस परेशानी और अशांति के दौर में भी जबकि दुनियां में एक ओर से दूसरी ओर तक एसी कयामत की हलचल मची हुई है, शायद ही कोई सप्ताह ऐसा जाता हो जिसमें कहीं न कहीं से मुशायरा की खबर न आती हो।
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यह शब्द विधायक एससी चटर्जी ने आज से लगभग 70 साल पहले इस समय लिखे थे जब गोरखपुर में 25 और 26 अप्रैल 1946 को मुशायरा हुआ था। शायद तस्वीर का रंग ब्लेक एंड वाइट से रंग बिरंग हो गया हो मगर वह तस्वीर अभी तक बदली नहीं है। आज भी उसी गंभीरता और शोक से मुशायरे आयोजित हो रहे हैं और बड़ी संख्या में हो रहे हैं।
मुशायरे में भीड़ भी होती है और सुनने वाले बड़े शौक से शायरों का कलम सुनते हैं, दाद देते हगें और कभी कभी शर्मिंदा भी करते हैं। इतने साल गुजर जाने के बाद मुशायरों का वजूद न सिर्फ बाकी है बल्कि संस्कृति और भाषा के संदर्भ में इसकी वृद्धि भी हुई है। अब जबकि टेक्नोलॉजी के क्रांति ने भाषीय और संस्कृतिक परिदृश्य पर जबरदस्त प्रभाव डाला है। हर लम्हा जिंदगी में नए नए बदलाव आ रहे अहिं जो सबके सब नई टेक्नोलॉजी की वजह से है।