कैराना के नतीजों से लगता है कि रोजमर्रा की सांप्रदायिकता से होने वाला सियासी फायदा घटने लगा है. विपक्ष की एकजुटता ने इस रणनीति की धार और कुंद कर दी है.
कैराना लोकसभा सीट के उप-चुनाव में राष्ट्रीय लोकदल के हाथों बीजेपी की हार के कई मायने निकाले जा सकते हैं. इस चुनाव के नतीजे से साफ है कि एकजुट विपक्ष को हराना बीजेपी के लिए बहुत बड़ी चुनौती होगी. ये नतीजे ये भी बताते हैं कि मोदी का जादू कम हो रहा है.
विकास के उनके वादे खोखले साबित हो रहे हैं. इसके सिवा इस नतीजे को ऐसे भी देख सकते हैं कि बीजेपी ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में चीनी मिलों पर किसानों का बकाया पैसा दिलाने में नाकामी की सजा भुगती है. और कैराना के नतीजे का सबके बड़ा सबक ये है कि उम्मीदों को आसमान पर बिठाकर, नामुमकिन से सपनों को पूरा करने का वादा करके उन्हें पूरा करने में नाकामी कितनी घातक हो सकती है.
लेकिन, इन सभी बातों से ज्यादा अहम है कैराना के मतदाताओं का एकजुट होकर रोजमर्रा की बात बन चुकी सांप्रदायिक राजनीति को मात देना. ‘रोजमर्रा की सांप्रदायिकता’ ये जुमला दो विद्वानों सुधा पई और सज्जन कुमार ने गढ़ा है.
उन्होंने इसके जरिए ये समझाने की कोशिश की है कि किस तरह बीजेपी हर चुनाव को बहुत आसानी से हिंदू बनाम मुसलमान बना देती है, और जीत जाती है. लेकिन, कैराना ने दिखा दिया है कि 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों के बाद आमने-सामने खड़े जाटों और मुसलमानों ने अपने मतभेद भुलाकर रोजमर्रा की बात बन चुकी सांप्रदायिकता के सामाजिक-आर्थिक नुकसान से पार पाने की कोशिश की है.
सुधा पई और सज्जन कुमार लिखते हैं कि रोजमर्रा की सांप्रदायिकता’ ‘रोज़ाना के छोटे-छोटे मगर भड़काऊ मसलों का इस्तेमाल लंबे समय से साथ रहते आ रहे हिंदुओं और मुसलमानों के बीच धीरे-धीरे दुश्मनी और सामाजिक दुराव पैदा करना है’.
सड़क हादसा, क्रिकेट के खेल में झगड़ा, किसी एक के घर का पानी रिस कर दूसरे के घर में पहुंचने जैसे मामूली मुद्दों को सांप्रदायिक रंग दिया जा सकता है. सुधा पई और सज्जन कुमार कहते हैं कि हर झगड़े, हर मुद्दे को हिंदू-मुसलमान का झगड़ा बनाने का मकसद, ‘समाज में मुसलमान विरोधी सामाजिक पूर्वाग्रह पैदा कर के उसके सबके बीच स्वीकार्य बनाना है’.
दोनों ही का कहना है कि रोजमर्रा की सांप्रदायिकता की ऐसी घटनाएं हम ज्यादातर उन जगहों पर देखते हैं, जहां के लोग आर्थिक चुनौतियों से जूझ रहे हैं, या फिर बड़े सामाजिक बदलाव का सामना कर रहे हैं. और उसके मुताबिक खुद को ढाल नहीं पा रहे हैं.
ऐसे हालात में हिंदुओं और मुसलमानों को एक-दूसरे के खिलाफ भड़काना आसान हो जाता है, क्योंकि दोनों ही समुदाय आर्थिक रूप से एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं. अपनी किताब के लिए सुधा पई और सज्जन कुमार ने 2005 में मऊ, 2007 में गोरखपुर और 2013 में मुजफ्फरनगर-शामली में हुए दंगों की बारीकी से समझा.