जूठे बर्तन धोने वाली यह मुस्लिम लड़की बनी सिगापुर की पहली महिला राष्ट्रपति

हलीमा के पिता सरकारी दफ्तर में चौकीदार थे। उनकी पगार काफी कम थी। पांच भाई-बहनों वाले परिवार का गुजारा बड़ी मुश्किल से होता था। इन तकलीफों के बीच परिवार पर एक और बड़ी मुसीबत टूटी। हलीमा के पापा की अचानक तबियत बिगड़ी और वह गुजर गए।

तब हलीमा सिर्फ आठ साल की थीं। परिवार पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा। मां कभी घर से बाहर नहीं निकली थीं। घर का राशन खत्म हो चुका था। परिवार भुखमरी की हालत में पहुंच गया था। पापा के दफ्तर से कोई मदद नहीं मिली। समझ में नहीं आ रहा था कि घर कैसे चलेगा? इसी बीच उन्हें सरकारी क्वाटर खाली करने का हुक्म मिल गया। मिन्नतों के बावजूद मोहलत नहीं मिली। अंतत: घर खाली करना पड़ा। करीबी लोगों ने भी मदद करने से इनकार कर दिया। लेकिन एक रिश्तेदार ने शरण दी। कुछ दिन यूं ही कटे। मां रोजी-रोटी के लिए भटक रही थीं, कई दरवाजे खटखटाए, पर कहीं काम नहीं मिला।

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हलीमा बहुत छोटी थीं, मगर मां की तकलीफें खूब समझती थीं। वह मां की मदद करना चाहती थीं, लेकिन कैसे? रास्ता नहीं सूझ रहा था। तभी किसी ने मां को सड़क किनारे दुकान खोलने की सलाह दी। मां ठेले पर चावल-मीट बेचने लगीं। शुरुआत में उनके पास दुकान का लाइसेंस नहीं था। हर वक्त पुलिस द्वारा पकड़े जाने का डर लगा रहता था। मां बहुत सबेरे उठतीं, बच्चों को स्कूल भेजतीं और फिर ठेला लेकर निकल पड़तीं चावल-मीट बेचने। हलीमा कहती हैं- मां बहुत मजबूत इरादों वाली महिला थीं। उनके लिए ईमानदारी सबसे महत्वपूर्ण चीज थी। चाहे जितनी भी गरीबी रही हो, उन्होंने हम भाई-बहनों को ईमानदारी की राह पर चलने की सीख दी।

जिंदगी पटरी पर लौटने लगी। हलीमा सुबह जल्दी उठकर घर के काम में मां की मदद करतीं। इसके बाद मां ठेला लेकर बाजार की ओर निकल जातीं और हलीमा बस्ता लादकर अपने स्कूल की तरफ। स्कूल की छुट्टी होने पर वह सीधे मां की दुकान पर पहुंच जातीं। वहां ग्राहकों को प्लेट में चावल-मीट परोसकर देतीं। उन्हें पानी देतीं और जूठे बर्तन भी मांजतीं। मां अगर आराम करने की सलाह देतीं, तो हलीमा अनसुना कर देतीं। वह जानती थीं कि खाने का ठेला चालाना आसान बात नहीं है।

मां एक साथ सारे काम नहीं कर पाएंगी। कभी-कभी वह इतनी थक जाती थीं कि रात में बिना खाए ही सो जातीं। अक्सर होमवर्क के लिए वक्त भी नहीं मिलता था। हलीमा कहती हैं- मुझे क्लास में नींद आ जाती थी। होमवर्क नहीं करने पर डांट भी पड़ती थी। मगर इसका मतलब यह नहीं है कि मेरा पढ़ाई में मन नहीं लगता था। तब मैं बहुत छोटी थी। पढ़ाई और काम की वजह से बहुत थकान हो जाती थी। हालात जो भी रहे हों, मैंने स्कूल जाना नहीं छोड़ा।

हालात ने हलीमा को वक्त से पहले बड़ा बना दिया। स्कूल में उनकी पहचान एक गंभीर लड़की की थी, जो बहुत कम हंसती थी, चुपचाप क्लास में पढ़ती रहती थी। उन्हें बच्चों के संग खेलना खास पसंद नहीं था। कुछ दिनों के बाद हालात सुधरे और मां को दुकान का लाइसेंस मिल गया। दुकान अच्छी चलने लगी। ग्राहकों की संख्या भी बढ़ गई। मां ने दुकान में नौकर रख लिया और बेटी को पढ़ाई पर फोकस करने को कहा। हलीमा चाइनीज गल्र्स स्कूल से हायर सेकेंडरी की पढ़ाई करने के बाद सिंगापुर यूनिवर्सिटी में दाखिल हुईं। 1978 में उन्होंने कानून की डिग्री हासिल की।

साल 2001 में मास्टर्स की डिग्री मिली। इसके बाद नेशनल ट्रेड यूनियन कांग्रेस में काम करने का मौका मिला। यूनियन की लीगल ऑफिसर होने के नाते उन्होंने कर्मचारियों के मुद्दों पर बड़ी शिद्दत से काम किया। जल्द ही वह पूरे सिंगापुर में मशहूर हो गईं। लोग उन्हें एक निडर व ईमानदार वकील के रूप में जानने लगे, जो सरकार से बिना डरे कर्मचारियों का पक्ष पेश करती थीं। 1992 में वह यूनियन के लीगल विभाग की डायरेक्टर बन गईं।

इसी बीच राजनेताओं से संपर्क बढ़ा। तब उन्होंने महसूस किया कि देश में बदलाव लाने के लिए राजनीति में आना जरूरी है। इसी इरादे से उन्होंने 2001 में राजनीतिक पारी शुरू की। उसी साल वह सांसद चुनी गईं। नई सरकार में उन्हें सामुदायिक विकास, युवा व खेल मंत्रालय की जिम्मेदारी मिली, जिसे उन्होंने बखूबी निभाया। एक साल बाद उन्हें समाज एवं परिवार विकास मंत्रालय का कामकाज सौंपा गया। अपने इस कार्यकाल में उन्होंने महिलाओं को मेडिकल सुविधा दिलवाने के लिए लंबा संघर्ष किया।

गरीब बच्चों को पढ़ाने के लिए उन्होंने जगह-जगह ट्यूशन सेंटर खुलवाए। लोकप्रियता बढ़ती गई और साथ में जिम्मेदारी भी। जनवरी 2013 में वह देश की पहली महिला स्पीकर नियुक्त हुईं। बतौर स्पीकर उन्होंने इस बात का ख्याल रखा कि हर सांसद को अपनी बात कहने का मौका मिले और उनके द्वारा उठाए गए मुद्दों का समाधान हो।

पिछले हफ्ते एक और कामयाबी उनके खाते में आई। वह सिंगापुर की पहली महिला राष्ट्रपति चुनी गईं। हलीमा कहती हैं- मां मेरी कामयाबी से बहुत खुश थीं। 2015 में उनका निधन हो गया। काश! वह मुझे इस मुकाम पर देख पातीं। उनके आदर्श हमेशा मेरे साथ रहेंगे।