मुल्ला अहमद जीवन एक बहुत ज्ञानी व्यक्ति गुजरे है. मुगल काल मे मुल्ला जी की राजनीतिक समझ का दूर-दूर तक चर्चा हुआ करता था. मजहबी शिक्षा के साथ-साथ राजनीति पर भी उनकी समझ बहुत गहरी थी. औरंगजेब आलमगीर के जन्म से मुगल दरबार मे बहुत खुशी का माहौल था. जब औरंगजेब बड़े हुए तब शाहजहाँ को उनके पठन-पाठन को लेकर चिंता बढ़ने लगी. उस समय पूरे मुगल साम्राज्य मे उस्ताद को खोजने के लिए मुनादी कराया गया. उस्ताद के चयन के लिए एक इंटरव्यू की तारीख़ निश्चित किया गई. उस तारीख़ को दूर-दूर से उस्ताद को लाया गया. इंटरव्यू के लिए मुल्ला अहमद जीवन भी पधारे थे. इंटरव्यू मे मुल्ला अहमद जीवन से प्रश्न किया गया “राजनीति या सियासत की क्या परिभाषा है?” तब बड़ी शांति से मुल्ला जीवन ने एक ही वाक्य मे उत्तर दिया “समय की सही पहचान ही राजनीति है.” मुल्ला जीवन के द्वारा दिये गये राजनीति की परिभाषा बादशाह को बहुत पसंद आई और इस तरह से औरंगजेब के उस्ताद के रूप मे मुल्ला अहमद जीवन की नियुक्ति सुनिश्चित हो गयी थी. मुल्ला अहमद जीवन ने ओरंगजेब आलमगीर के मष्तिष्क में समय की समझ पैदा किया और औरंगजेब का शासन एक मिसाल बनकर उभरा.
इस ऐतिहासिक तथ्य को बताने के पीछे का असल मक़सद “राजनीति” शब्द को समझना था. किसी भी व्यक्ति मे राजनीति की सही समझ तबतक विकसित नहीं होगी जबतक उसमे समय की सही समझ पैदा न हो जाए. भारत के मुसलमानों की एक बड़ी विडम्बना रही है कि उसके भीतर समय की सही समझ पैदा ही नहीं हुई है. इसलिए ही भारतीय मुसलमान देश की राजनीति मे हाशिये पर धकेल दिए गए. विगत सत्तर वर्ष से दूसरों के समय के पीछे चलने का परिणाम हुआ कि मुसलमान भारतीय राजनीति की घड़ी की सुई को न पकड़ सके. देश के अलग-अलग समुदायों के नेताओं ने समय को समझना शुरू कर दिया है इसलिए ही उन समुदायों की राजनीतिक हिस्सेदारी सुनिश्चित हो चुकी है.
अंग्रेजों के शासन मे सबसे अधिक बेचैनी जमींदारों को हो रही थी. उस समय के सभी बड़े जमींदार आभिजात वर्ग या तथाकथित सवर्ण वर्ग से थे. इसलिए अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई मे भी सभी बड़े नेता, कुछ अपवादों को छोडकर, सवर्ण वर्ग से थे. उन नेताओं के पीछे जो भीड़ थी उसमे भारी संख्या दलितों, मुसलमानों और आदिवासियों की थी. इस भीड़ मे अधिकतम को यह भी मालूम नहीं था कि ईस्ट इंडिया कंपनी क्या है? मगर वह लोग भीड़ का हिस्सा इसलिए थे क्योंकि उनको मालूम था कि उनकी रोजी-रोटी जमींदारों के अनुसार तय होती है और जमींदार के कहने पर अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ना है. इस प्रकार स्वतंत्रा की लड़ाई एक सामूहिक लड़ाई थी. यह अलग बात थी कि सभी बड़े नेता उच्च वर्ग से थे. फिर भी सभी समुदाय के लोग समूहिक रूप से काँग्रेस के साथ खड़े रहे. अंग्रेजों के जाने के बाद जब देश मे भारत के लोगों का शासन हुआ तब वही उच्च वर्ग के सभी जमींदार देश की सत्ता पर काबिज हुए और भारतीय शासन-व्यवस्था अंग्रेजों की हाथों से निकलकर ब्राह्मणों की हाथों मे पहुँच गई. तभी से ब्राह्मणों ने काँग्रेस नामक राजनीतिक घड़ी को अपने कब्ज़ा मे कर लिया. इस प्रकार से भारत में ब्राह्मणों का राजनीतिक साम्राज्य खड़ा हुआ.
दलितों के नेताओं ने ब्राह्मणवादी साम्राज्य की शातिराना चाल को समझ लिया था. दलित समुदाय ने समय को सही पहचाना और काँग्रेस से दूरी बनाकर अपनी क़यादत को मज़बूत किया. आज स्थिति ऐसी बनी है कि दलित समुदाय सरकार में या विपक्ष में एक शक्तिशाली भूमिका में है. परिणामस्वरूप भारत के सबसे बड़े प्रदेश उत्तरप्रदेश में एक दलित मायावती मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुँचती हैं. जब दलित समुदाय ने खुद को अलग किया तब ओबीसी के नेताओं में एक अलग तरह की बेचैनी का विकास हुआ. मण्डल और कमण्डल का नारा लगाकर ओबीसी ने भी ब्राह्मणवादी के चँगुल से खुद को बाहर निकाल लिया. परिणामस्वरूप देश के जितने भी क्षेत्रीय दल है उसमें लगभग सभी ओबीसी समुदाय से सम्बन्ध रखती है. लालू, मुलायम और नितीश इत्यादि का भारतीय राजनीति में एक अलग पहचान है. सिक्ख भी ब्राह्मणवादी कांग्रेस की पारम्परिक सहयोगी थें मगर सन 1984 के दंगा के बाद स्वयं को एक समुदाय के रूप में चिन्हित करके एक अलग राजनीतिक पहचान खड़ी किया. दिल्ली से हज़ारों मील दूर असम में बोडो नामक समुदाय है जिसकी बहुत कम आबादी है मगर उन्होंने स्वयं को ब्राह्मण लॉबी से अलग करके बीपीएफ नामक दलदल का गठन किया हैं. परिणामस्वरुप बोडो समुदाय के लिये विधानसभा और लोकसभा में अलग से सीट रिज़र्व कर दिया गया. दलितों, ओबीसी जातियों, बोडो, सिक्खों इत्यादि की समय की सही समझ ने ही राजनीतिक रूप से सशक्त बनाया है. राजनीतिक रूप से सशक्त बनने का ही परिणाम है कि आज यह सभी समुदाय सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक स्तर पर दूसरों को चुनौती पेश कर रहे है.
अब रहा सवाल मुसलमानों का तो मुसलमानों ने समय को पहचाना ही नहीं है. वरना, देश की सबसे बड़े अल्पसंख्यक, जिसकी आबादी लगभग 15-18 प्रतिशत है, को राजनीतिक रूप से हाशिये पर न धकेल दिया गया होता. मुसलमान दो शब्दों के बीच में उलझकर रह जाता है. एक शब्द है सेक्युलरिज्म और दूसरा शब्द साम्प्रदायिकता है. अबतक मुसलमानों की राजनीति इन दो शब्दों से ही तय होती है. साम्प्रदायिकता का भय और सेक्युलरिज्म नामक डाइबीटिज ने मुसलमानों को राजनीतिक रूप से लकवाग्रस्त कर दिया है. इन दो शब्दों ने मुसलमानों को ऐसा उलझाया है कि उनकी नज़र घड़ी की सुई की तरफ़ पहुँचती ही नहीं है. यह भी तय है कि जबतक मुसलमान अपने वजूद को सेक्युलरिज्म और साम्प्रदायिकता की नज़र से देखेगा तबतक घड़ी की सुई पहचान में ही नहीं आयेगी.
आज मुसलमानों के पास एक भी ऐसा राजनेता नहीं है जो समय की सही समझ रखता है. जिसके पास समय की इतनी समझ हो की वह पक्ष और विपक्ष दोनों से समय आधारित मुद्दों पर खुलकर चर्चा कर सके. डॉ अयूब साहब से देश के मुसलमानों को बड़ी उम्मीद थी. लोगों को उम्मीद थी कि आगे चलकर मुसलमानों की एक सशक्त आवाज़ बनेंगे. लेकिन, डॉ साहब भी समय का सदुपयोग नहीं कर सके. पूरे पाँच वर्षों में विधानसभा के भीतर मुसलमानों के किसी पाँच मुद्दों पर खुलकर भाषण भी कर देते तो मुसलमानों के भीतर एक तसल्ली रहती कि अपनी क़यादत के लिए विधानसभा में एक सशक्त नेता हैं. फिर, डॉ साहब के पास राष्ट्रिय स्तर पर मुस्लिम प्रतिनिधित्व करने का अवसर मिलता. मौलाना बदरुद्दीन अजमल क़ासमी साहब ने क्षेत्रीय स्तर पर बहुत सशक्त प्रतिनिधित्व खड़ा किया है. उन्होंने समय को पहचानने में कोई गलती नहीं किया और बिलकुल सही समय पर असम की राजनीति में एंट्री मार दिया. लेकिन, एक सांसद के रूप में राष्ट्रिय स्तर पर मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करने का बेहतरीन अवसर था. लेकिन, संसद के भीतर उनकी कम सक्रियता के कारण मुसलमानों ने उन्हें राष्ट्रिय स्तर का नेता नहीं स्वीकार किया. संसद काल के समय का सही इस्तेमाल नहीं करना ही उनकी राष्ट्रीय राजनीति से दूरी का मुख्य कारण है.
ओवैसी साहब बहुत हद तक समय को समझने में कामयाब रहे है. मुसलमानों की अपनी एक राजनीतिक पार्टी की समय की आवश्यकता थी. ओवैसी ने बिलकुल सही समय पर तेलंगाना से बाहर निकलकर राष्ट्रिय स्तर पर मुसलमानों की प्रतिनिधित्व की तरफ पाँव बढ़ाया है. राष्ट्रिय स्तर पर स्वयं को स्थापित करने का यह बिलकुल उपयुक्त समय है. उपयुक्त समय इसलिए है कि देश की सत्ता पर अभी एक साम्प्रदायिक दल का कब्जा है. इस साम्प्रदायिक दल के राज्य में मुसलमानों से सम्बंधित सभी प्रकार के मिथकों पर खुलकर बहस हो चुकी है. लव-जिहाद, गौ-हत्या, राष्ट्रवाद, सब्सिडी, आतंकवाद, राम-मंदिर, बंग्लादेशी घुषपैठियों इत्यादि पर खुलकर बहस हुई है और इन मुद्दों पर मुँह की खानी पड़ी है. उपरोक्त मुद्दों पर तथाकथित सेक्युलर दलों के समय में कभी भी खुलकर बहस नहीं हुई और सेक्युलर दलों द्वारा इन मुद्दों का इस्तेमाल मुसलमानों को डराने के लिए होता रहा. अभी केंद्र की राजनीति में लोगों के ऊपर सेक्युलर दलों के सत्ता का खुमार नहीं है. इसलिए ओवैसी साहब के पास यह उपयुक्त समय है कि साम्प्रदायिक भाजपा का कॉउंटर पेश करते हुए सेक्युलर दलों की शातिराना चाल पर से पर्दा उठाकर मुसलमानों के लिए एक राजनीतिक विकल्प दें. अब आने वाला समय ही तय करेगा कि मुसलमानों को समय की कितनी समझ है?
अभी वर्तमान में ही उत्तरप्रदेश कि राजनीति में एक विकास देखने को मिला. राष्ट्रिय उलेमा कॉउंसिल के मौलाना रशादी ने बहुजन समाज पार्टी को पूर्ण रूप से समर्थन देने की घोषणा कर दिया. यहाँ पर मौलाना रशादी ने एक परिपक्व राजनीतिज्ञ की तरह समय को सही से परख कर बसपा को समर्थन दिया. मौलाना को यह बात भली भांति समझ में आ गयी थी कि उत्तरप्रदेश के मुस्लिम राजनीति में ओवैसी का दखल बढ़ रहा है. यदि वर्तमान चुनाव में मज़लिस खाता खोलने में कामयाब रहती है तब मज़लिस उत्तरप्रदेश की राजनीती में मुस्लिम क़यादत की तऱफ आसानी से बढ़ जायेगी. इसलिए उन्होंने समय को परखते हुए मज़लिस की क़यादत को रोकने के लिए और उलमा कौंसिल की सेक्युलर छवि बनाये रखने के लिए बसपा के सामने समर्पित कर दिया. समर्पित शब्द का प्रयोग जानबूझकर इसलिए कर रहा हूँ जब समझौता होता है तो मुद्दों और शर्तों के आधार पर होती है. मगर उलमा कौंसिल और बसपा दोनों ने कहीं पर भी खुलेआम अपने कार्यकर्ताओं से समझौता के मुद्दों पर चर्चा नहीं किया है. लेकिन, सबकुछ के बावजूद मौलाना की यह समय की समझ ही थी जिसमे दलितों और मुसलमानों को एक प्लेटफॉर्म पर लाने की कोशिश है. यदि चुनाव बाद उलमा कौंसिल के प्रति बसपा की रूचि सकारात्मक होती है तब इस स्थित में यह एक ऐतिहासिक क़दम साबित होगा. यदि सरकार बनाने की स्थिति में बसपा नहीं पहुँची और बसपा के लिये भाजपा समय की जरूरत बन जाये तब उलमा कौंसिल के पास कुछ भी नहीं बचेगा. क्योंकि उस स्थिती में मायावती की समय की समझ भाजपा के साथ होगी. समय की इसी समझ को राजनीति बोलते हैं.
- तारिक अनवर चम्पारनी