जैसे-जैसे उत्तर प्रदेश विधानसभा के सात चरणों का चुनाव आगे बढ़ रहा है, भाजपा के चुनावी अभियान के एकमात्र झंडाबरदार प्रधानमंत्री मोदी साम्प्र्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए कटु शब्दों का बेहद आक्रामक प्रयोग कर रहे हैं। अभी २० फ़रवरी को फतेहपुर में एक चुनावी रैली को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री ने प्रदेश की समाजवादी सरकार पर मुस्लिम तुष्टिकरण का आरोप लगाया और संवेदनशीलता की सीमाएं लांघते हुए कहा कि ‘‘रमजान में बिजली आती है तो दिवाली में भी आनी चाहिए; भेदभाव नहीं होना चाहिए..गांव में कब्रिस्तान बनता है तो शमशान भी बनना चाहिए।’’
प्रधानमंत्री सीधे-सीधे अखिलेश सरकार पर उप्र में मुस्लिमों का पक्ष लेने के आरोप के साथ हमला कर रहे थे। हालांकि अपने आरोप को सिद्ध करने के लिए उन्होंने कोई तथ्य या आंकड़े नहीं रखे; लेकिन वे अपने हिन्दू श्रोताओं और मतदाताओं को संदेश दे रहे थे कि समाजवादी पार्टी को उनके वोटों की फिक्र नहीं है और वह सत्ता में सिर्फ मुस्लिम वोटों के कारण है, इसलिए स्वाभाविक रूप से उन्हीं की सरपरस्ती करती है।
इतने संवेदनशील आरोपों की गहराई से छानबीन जरूरी है। नरेन्द्र मोदी पिछले ३ हफ़्तों से उप्र में चुनावी सभाओं को संबोधित कर रहे हैं; लेकिन अभी तक उन्होंने ऐसे नाजुक मुद्दे को नहीं छुआ था। फतेहपुर के चुनावी भाषण से दिखता है कि वे हिन्दू और मुस्लिम मतदाताओं के बीच ध्रुवीकरण की कोशिशों को परवान चढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं। इसका सीधा सा मतलब यह भी है कि उप्र के बहुसंख्यक हिन्दू मतदाताओं का समर्थन भाजपा को नहीं मिला है। इसलिए मुस्लिम तुष्टिकरण और ‘दुश्मन’ का हव्वा खड़ा किया जा रहा है। इस तरह की परिस्थिति पर एक अग्रणी अंग्रेजी अखबार ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि उप्र चुनाव प्रचार के मध्य पहुंचने तक, ‘‘प्रधानमंत्री का उदाहरणों का चयन और उनका संदेश, दोनों दुर्भाग्यपूर्ण हैं. यह न तो प्रधानमंत्री ही और न ही उनके ऑफिस की गरिमा के अनुरूप हैं!’’
प्रधानमंत्री की मुस्लिम वैमनस्य की वैचारिक पृष्ठभूमि को समझने से पहले, इन आरोपों की बौछार को सामान्य जानकारियों और तथ्यों के आधार पर हकीकत के आईने में देखें। नरेन्द्र मोदी का तर्क है कि अखिलेश सरकार मुस्लिम वोटों से चुनी हुई है, इसलिए इसने हिंदुओं की मांगों की अनदेखी कर सिर्फ ‘मुस्लिम वोट-बैंक’ के हित में काम किया है। हम इस मुद्दे पर अपना राय बनाएं उससे पहले कुछ आंकड़ों पर विचार कर लें। उत्तर प्रदेश की कुल जनसंख्या में मुस्लिमों की आबादी सिर्फ १९.३ प्रतिशत है, जबकि हिन्दू आबादी ७९.७३त्न है। उप्र विधानसभा की कुल ४०४ सीटों में ७३ विधानसभा क्षेत्रों में मुस्लिम मतदाता ३०0त्न से अधिक है और ७०0 विधानसभा क्षेत्रों में २०-३०0त्न तक मतदाता हैं। २०१२ के विधानसभा चुनावों में समाजवादी पार्टी को २२४ सीटें मिली थीं।
अगर नरेन्द्र मोदी की दलील को इन आंकड़ों और तथ्यों के संदर्भ में देखें, तो उप्र में किसी भी राजनीतिक दल के लिए सिर्फ मुस्लिम वोटों के दम पर और मुस्लिम हितों की रक्षा के लिए चुनाव लडऩा ‘आत्मघाती’ कदम सिद्ध होगा। यह किसी मूर्ख का दिवास्वप्न ही हो सकता है कि १९.३ त्न मतदाता प्रदेश में किसी को कम से कम २०३ सीटें दिलाकर सरकार बनवा सकते हैं। अभी हो रहे विधानसभा चुनाव में भाजपा प्रत्याशियों की सूची भी यही बता रही है कि उसे खुद मुस्लिम समुदाय कोई महत्वपूर्ण या निर्णायक भूमिका में दिखाई नहीं दे रहा। इस चुनाव में उन्होंने एक भी मुस्लिम व्यक्ति को अपना उम्मीदवार नहीं बनाया है। ‘मुस्लिम वोट-बैंक’ का मिथक हकीकत में अधिकतर गैर-भाजपा सरकारों को चुनने वाले उप्र के मतदाताओं का अपमान है।
तथाकथित हिंदुत्ववादियों खड़े किए गए मुस्लिम तुष्टिकरण के ‘भूत’ के पीछे कोई तथ्यात्मक आधार नहीं है, यह सिर्फ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखाओं और ‘बौद्धिक बैठकों’ में पढ़ाया जाने वाला झूठ है। मुस्लिम तुष्टिकरण के बारे में प्रधानमंत्री मोदी जो कुछ कह रहे हैं वह उनके ‘हिन्दू राष्ट्रवादी’ और गुरु गोलवलकर के सिद्धांतों से पोषित राजनीतिज्ञ होने के कारण है। गुरु गोलवलकर संघ के दूसरे प्रमुख थे, जिन्हें ‘नफरत का गुरु’ भी कहा जाता है। गोलवलकर १९३९ में घोषणा कर चुके थे कि भारत के मुस्लिम और ईसाई विदेशी नस्ल के हैं और ‘हिन्दुस्थान’ में रहने के लिए, ‘‘या तो वे हिन्दू संस्कृति और भाषा को धारण करें, हिन्दू धर्म का सम्मान और अधिकार स्वीकार करना सीखें, दूसरे किसी मत को न मानें सिर्फ हिन्दू प्रजाति और संस्कृति का गुणगान करें अर्थात हिन्दू राष्ट्र को मानें और अपनी पृथक पहचान को हिन्दू प्रजाति में विलीन कर दें, या देश में रह सकते हैं, पूरी तरह हिन्दू राष्ट्र के अधीनता में, बिना किसी अधिकार के, किसी विशेषाधिकार की योग्यता के बगैर, बेहतर व्यवहार की अपेक्षा के बिना, यहां तक कि नागरिक अधिकार भी नहीं। इस तरह, कम से कम होना भी चाहिए, कोई दूसरा रास्ता है भी नहीं उनके लिए। हम एक प्राचीन राष्ट्र हैं, हम निर्णय लें, एक प्राचीन राष्ट्र को करना चाहिए और करेंगे भी, जिन विदेशी प्रजातियों ने हमारे राष्ट्र में रहना पसंद किया है उनके बारे में।’’
संघ ने भारतीय मुसलमानों को भारतीय राष्ट्र का अंग मानने की अवधारणा को हमेशा सिरे से खारिज किया है। संघ के अंग्रेजी मुखपृष्ठ ‘ऑर्गनाइजर’ ने स्वतंत्रता की पूर्व संध्या (अगस्त १४, १९४७) पर लिखे अपने सम्पादकीय में राष्ट्र की अवधारणा को इन शब्दों में वयक्त किया था, ‘‘हमें अब अपने आप को राष्ट्रीयता के मुद्दे पर भ्रामक मतों से प्रभावित नहीं होने देना चाहिए। हम अपनी मानसिक भ्रान्ति तथा वर्तमान और भविष्य की तकलीफों को खत्म कर सकते हैं अगर हम इस बात को मान्यता देने को तैयार हों कि हिन्दुस्थान में सिर्फ हिन्दू राष्ट्र का निर्माण करते हैं, और राष्ट्र की संरचना इस सुरक्षित और ठोस आधार पर रखी जानी चाहिए..राष्ट्र की स्थापना स्वयं हिंदुओं द्वारा, हिन्दू परंपरा, संस्कृति, विचार और आकांक्षाओं पर होनी चाहिए।’’
आजादी के बाद भी अल्पसंखयकों विशेषकर मुस्लिमों के खिलाफ संघ का घृणा अभियान निरंतर अबाध गति से चलता रहा, या कह लीजिए और अधिक केंद्रित हो गया। संघ के कैडर के लिए ‘पवित्र’ किताब ‘द बंच ऑफ थॉट्स’, जो कि गोलवलकर के लेखों और भाषणों का संग्रह है (संघ ने सबसे पहले १९६६ में प्रकाशित किया था), में एक बहुत बड़ा खंड ‘अंदरूनी खतरे’ के नाम से है, जिसमें मुस्लिमों और ईसाईयों को क्रमश: पहला और दूसरे नंबर का खतरा बताया गया है। वे आगे बढ़ते हुए सामान्य मुस्लिमों के खिलाफ इन शब्दों में विष वमन करते हैं, ‘‘देश के अंदर बहुत से मुस्लिम क्षेत्र हैं, अर्थात बहुत सारे ‘लघु पाकिस्तान’..निष्कर्ष यह है कि हकीकत में हर जगह, वहां पर मुस्लिम हैं जो पाकिस्तान के साथ ट्रांसमीटर द्वारा लगातार संपर्क में हैं..’’
दक्षिण भारत के बैंगलोर में नवम्बर ३० , १९६० को संघ के प्रमुख प्रचारकों को संबोधित करते हुए गोलवलकर ने एक सनसनीखेज बयान दिया, ‘‘दिल्ली से रामपुर तक, मुसलमान एक खतरनाक षड्यंत्र को अंजाम दे रहे हैं, हथियार इक_े कर रहे हैं और अपने लोगों को संगठित कर रहे हैं, और संभवत: अंदर से ही हमले के लिए समय का इंतजार कर रहे हैं।’’ आश्चर्यजनक बात यह थी कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के पूरे मुस्लिम समुदाय पर इतने गंभीर आरोप लगाए गए, बिना किसी प्रमाण या तथ्य के। उससे बड़ा दुर्भाग्य यह था कि कर्नाटक या उप्र की पुलिस ने गोलवलकर पर अफवाह फैलाने के जुर्म में अभियोग ही नहीं चलाया।
गोलवलकर की मुस्लिमों के प्रति नफरत की कोई सीमा नहीं थी। वे लगातार प्रचारित करते रहे कि मुसलमान, ‘‘इस धरती पर पैदा हुए हैं, कोई शक नहीं। पर क्या वे सच्चे नमकहलाल हैं? क्या वे इस धरती के प्रति अहसानमंद हैं जिसमें पैदा हुए? क्या वे महसूस करते हैं कि इस धरती और इसकी परम्पराओं के पुत्र हैं, और इसकी सेवा करना उनका बड़ा सौभाग्य है? क्या उन्हें इसकी सेवा के कर्तव्य का अहसास है? नहीं, उनका धर्म बदलने के साथ ही, राष्ट्र के प्रति प्रेम और समर्पण की भावना खत्म हो जाती है। और यह सब यहीं समाप्त नहीं होता, उनमें इस राष्ट्र के दुश्मनों के साथ अपनी पहचान की भावना विकसित हो जाती है।’’
उप्र चुनाव में प्रधानमंत्री मोदी द्वारा मुस्लिम समुदाय पर किए जा रहे हमलों पर किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। वे भले ही लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष देश के प्रधानमंत्री हैं, पर एक राजनीतिज्ञ के रूप में उनकी शिक्षा-दीक्षा संघ और गोलवलकर ने की है और गर्व के साथ वे अपनी पहचान ‘हिन्दू राष्ट्रवादी’ के रूप में करते हैं। मोदी संघ के अल्पसंखयकों, विशेषकर मुस्लिमों के प्रति दुष्प्रचार के एजेंडे को आगे बढ़ाने का काम कर रहे हैं। वे देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय को अलग-थलग कर हिंदुओं की गोलबंदी करना चाहते हैं। वे देश के लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष ढांचे के लिए सबसे बड़े खतरे का प्रतिनिधित्व करते हैं। यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारे लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष संवैधानिक ढांचे के साथ इतने लम्बे समय तक काम करने के बावजूद प्रधानमंत्री मोदी के हिंदुत्व बोध में रत्ती भर भी फर्क नहीं पड़ा है। मार्च २०१७ के पहले अर्ध में आने वाले उप्र चुनाव के नतीजे भारतीय गणतंत्र के भविष्य का फैसला करेंगे। क्या भारतीय लोकतंत्र, इस अंदरूनी हमले से अपने अस्तित्व को बचा पाएगा, यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है?
( यह आर्टिकल शम्सुल इस्लाम का है, जिसका अनुवाद नवयुग के सम्पादक चिरंजीव सरोज ने किया है)