हिंदू मुसलमान विवादों के आविष्कार का सियासी फ़ॉर्मूला

अयोध्या में विवादित ज़मीन पर राम मंदिर बने या न बने, दोनों ही हालत में अगर इससे किसी को कोई फ़ायदा हो सकता है तो वह भाजपा ही है। अगर मंदिर बना तो हिंदुत्व की जीत होगी, अगर नहीं बना तो पराजित बहुसंख्यक हिंदुओं से भाजपा के समर्थन में और अधिक मज़बूती से एकजुट होने का आह्वान किया जाएगा, यानी चित भी मेरी, पट भी मेरी।

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यह एक कामयाब फ़ार्मूला है, जीते तो जय जय, हारे तो हाय हाय, मतलब ये कि हिंदुओं की धार्मिक भावना की हांडी हमेशा आँच पर चढ़ी रहेगी। इसी फ़ॉर्मूले के तहत लखनऊ में भाजपा के कुछ नेताओं ने एक ऐतिहासिक मस्जिद के ठीक सामने चौराहे पर लक्ष्मण की मूर्ति लगाने का प्रस्ताव रखा है। इस पर मस्जिद के इमाम ने एतराज़ किया है, उनका कहना है कि मस्जिद के सामने ईद-बकरीद की नमाज़ होती है और मुसलमान किसी मूर्ति के आगे नमाज़ नहीं पढ़ सकते।

इस तरह एक शानदार और फ़ायदेमंद विवाद का जन्म हो चुका है। ये जितना बढ़ेगा हिंदुत्ववादी कथानक हर हाल में मज़बूत होगा, साथ ही इस पूरे विवाद में अल्पसंख्यक मुसलमानों को बार-बार ये एहसास होता रहेगा कि वे शायद बराबर के नागरिक नहीं हैं।

हालाँकि टीलेवाली मस्जिद के इमाम कह रहे हैं कि वे लक्ष्मण की मूर्ति लगाने पर उन्हें कोई एतराज़ नहीं है लेकिन ये मूर्ति मस्जिद के ठीक सामने नहीं लगनी चाहिए, भाजपा से जुड़े नेताओं का कहना है कि मूर्ति वहीं लगेगी, अगर मूर्ति कहीं और लगेगी तो विवाद कैसे होगा? विवाद नहीं होगा तो ये सब करने का फ़ायदा क्या है?

ये अनेक सियासी मास्टर स्ट्रोक्स में से एक है, क्योंकि कांग्रेस, सपा और यहाँ तक कि बसपा भी अगर इस नए विवाद में पड़ेगी तो भाजपा उसके ऊपर ‘हिंदू विरोधी’ होने का लेबल चिपकाएगी जो एक बड़ा सियासी जोख़िम है। इसलिए भाजपा विरोधी चुप ही रहेंगे।

वैसे भी हिंदू भावना की राजनीति की कोई काट विपक्ष के पास नहीं है, वे या तो चुप रहते हैं या भाजपा के नेताओं से मंदिरों-मठों में शीश झुकाने की होड़ लगाते हैं। विपक्ष सिर्फ़ अंक-गणित के भरोसे विचारों के संघर्ष को जीत लेना चाहता है जो मुमकिन नहीं है।

(साभार- बीबीसी)