मैं गुजरात के विधानसभा चुनाव के नतीजे पर कुछ लिखना चाहता था लेकिन बाद में मैंने यह इरादा किया कि गुजरात में जिस तरह भाजपा, आरएसएस, और उसके हमनवा ताकतों ने साम्प्रदायिकता का शर्मनाक प्रदर्शन किया है कि उसकी कुंडली खंगाली जाए और यह पता किया जाए कि यह ज़हर भारतीय समाज के रगों में कैसे उतरा और इस ज़हरीली फसल के पीछे के चेहरों ने कैसे नकाब पहनकर हमारी साझी संस्कृति और गंगा जमुनी रवायतों को रेज़ा रेज़ा किया है।
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भारत में पिछले कुछ सालों में साम्प्रदायिकता में बढ़ोतरी हुआ है और इसकी बुनियादी वजह अन्य स्वार्थी तत्व का उस आग को हवा देना है।
पहले तो साम्प्रदायिकता के कीटानूं शहरों में ही पाए जाते थे, लेकिन इन दिनों यह देहातों को भी अपनी चपेट में ले लिया है। आप अगर इसकी इतिहास को उठाकर देखें तो यह बात सामने आयेगी कि साम्प्रदायिकता के भावनाओं और उनके नतीजे में होने वाले हिंसक घटना शहरों में ही ज्यादा हुआ करते थे गाँवो देहात में एक आध ही इस तरह के घटना का कोई मामला पेश आता था।
अब तो डर इस बात का है कि नफरत का यह सिलसिला यूँही जारी रखा गया तो आने वाले दिनों में यह गंभीर घटनाओं की वजह बन सकते हैं, और बड़े पैमाने पर खून खराबा की वारदात घट सकती है। 1857 से पहले के संयुक्त भारत के अधिकतर भागों में किसी तरह के साम्प्रदायिक भावनाएं नहीं थे। और उनमें दुश्मनी या साम्प्रदायिक दुश्मनियों का रंग शामिल नहीं था।
हिन्दू वर्ग ईद, बकरईद और मुहर्रम में शामिल होकर मुसलमानों से भाईचारे का प्रदर्शन करते थे तो मुसलमान भी होली, दिवाली और अन्य हिन्दुवाना त्यौहार में शामिल रहते थे और दोनों ही वर्ग के बीच एक भाईचारे का रिश्ता कायम था।सवाल यह पैदा होता है डेढ़ सौ सालों में भारत के उन दो बहुसंख्यक धर्म के मानने वालों के बीच दुश्मनी और संदेह की हवा कैसे वजूद में आई? आज़ादी की जंग के दौरान ही भगवा आंदोलन जो दरअसल इटली और जर्मनी की नाज़ी सोच को अपनाकर आर्य जाती की बढ़ावा और कट्टर हिंदुत्व की प्रचार के लिए वजूद में आई थी।
उसने हिन्दू मुस्लिम भेदभाव और इन दोनों समुदायों को एक दुसरे से लड़ाकर अपनी राजनितिक रोटी सेंकने की अभियान छेड़ दी थी और इनको फलने फूलने में आज़ादी के बाद खुद को सेकुलर कहने वाली राजनितिक पार्टियों के भी नर्म हिंदुत्व ने काफी मदद की और आज हालात इस हद तक गंभीर हो चुकी है कि मुंबई और देश के दुसरे बड़े शहरों में आज मुसलमान को रोज़गार और किराये पर मकान हासिल करने में भी बहुत कठिनाईयां पेश आती हैं। जब भी देश के किसी हिस्से में कोई बम धमाका होता है तो पुलिस से पहले इलेक्ट्रॉनिक मीडीया किसी मुस्लिम संगठन (चाहे उसका ज़मीन पर कोई वजूद ही क्यों न हो) के उसमें लिप्त होने का ऐलान कर देती है और कुछ मुस्लिम नौजवानों के नाम भी रटने लगती है और यह सारा अम्ल इस तेवर और तरीके से होता है जैसे यही सच्चाई हो।