निजता का मौलिक अधिकार-संविधान की किताब में सुंदर सी कविता है: रवीश कुमार

22 अगस्त का दिन याद कीजिए। सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले की ऐतिहासिकता को अपनाने की होड़ मची थी। ऐसी होड़ 24 अगस्त को आए संविधान पीठ के फ़ैसले को अपनाने के लिए नहीं दिख रही है। केंद्रीय कानून मंत्री अदालत के भीतर सरकार की राय का हवाला नहीं दे रहे हैं बल्कि राज्य सभा में वित्त मंत्री अरुण जेटली के बयान का हवाला देकर इस फ़ैसले की हार में ज़बरन जीत का दावा करते रहे।

राज्य सभा में जेटली का बयान संविधान पीठ के फैसले से मेल खाता है लेकिन यही बयान फिर अदालत में अटार्नी जनरल ने क्यों नहीं रखा? क्यों सरकार के वकील ने कहा कि निजता का अधिकार मौलिक अधिकार नहीं है। यह एक सामान्य कानून का मामला है। कायदे से रविशंकर प्रसाद को यह बताना चाहिए कि इस ऐतिहासिक फ़ैसले में उनके अटार्नी जनरल की किस दलील को सुप्रीम कोर्ट ने स्वीकार किया है।

रविशंकर प्रसाद की प्रेस कांफ्रेंस से लग रहा था कि सरकार को 24 अगस्त की ऐतिहासिकता भारी पड़ गई है। फ़ैसला निजता पर आया था, मगर रविशंकर प्रसाद अपना आधार कार्ड दिखा रहे थे जिस पर पांच जजों की बेंच से अलग से फैसला करेगी। किसी पत्रकार को पूछना चाहिए था कि के के वेणुगोपाल से पहले मुकुल रोहतगी ने अटार्नी जनरल की हैसियत से आधार से संबंधित एक मामले में इसी सुप्रीम कोर्ट में क्यों कहा कि निजता एक बोगस बात है। नागरिक का उसके शरीर पर संपूर्ण अधिकार नहीं है।

संविधान पीठ के सामने सरकार के पास अपनी राय बदलने का दूसरा मौका था, मगर राय नहीं बदली गई। फिर राज्य सभा में दिए गए बयान की आड़ में सुप्रीम कोर्ट में कही गई बातों की हार से क्यों बचा जा रहा है? क्या भारत की जनता के लिए ऐतिहासिक फ़ैसला सरकार के लिए ऐतिहासक नहीं है? स्वागत करने की औपचारिकता ज़रूर पूरी की गई है।

एक पत्रकार ने कानून मंत्री से पूछा भी कि आपने अपने हिसाब से बातों को घुमाफिराकर पेश किया है तो उनके चेहरे पर तनाव पसर गया। एक महिला पत्रकार ने पूछा कि सरकार एक बिल लेकर आई है कि समलैंगिक जोड़े सरोगेसी के ज़रिये बच्चा पैदा नहीं कर सकते हैं, जबकि आज के फैसले में सेक्सुअल संबंध और चुनाव को मौलिक अधिकार माना है।

बड़े आराम से कानून मंत्री ने कह दिया कि ये आज का विषय नहीं है। इससे कहीं ज़्यादा वित्त मंत्री जेटली विनम्रता से बातों को अपने पक्ष में व्याख्या करने का प्रयास कर रहे थे। हर जागरुक और चिन्तशील नागरिक को आज का फ़ैसला कई कई बार पढ़ना चाहिए।

भारत की सर्वोच्च अदालत का यह फ़ैसला पूरी दुनिया के लिए मिसाल बनने जा रहा है। यह फ़ैसला भारत को नई पहचान देगा। संविधान पीठ के सामने अटार्नी जनरल के के वेणुगोपाल ने कहा कि प्राइवेसी की बात खाते-पीते घरों के लोगों की बात है। यह बात ही बहुसंख्यक जनता की आकांक्षाओं और ज़रूरतों से बहुत अलग है। राज्य कल्याणकारी योजनाओं के तहत ग़रीब लोगों को जो सुविधाएं देता है, उसके लिए निजता का अधिकार छोड़ा जा सकता है। जीने का अधिकार सर्वोपरी है। निजता का अधिकार नहीं। सरकार और उसके समर्थक यही कहते रहे कि यह कोई अमीरों का चकल्लस है। अंग्रेज़ी में पासटाइम है। अदालत ने साफ साफ कह दिया कि इस दलील में दम नहीं है। यह दलील संविधान की समझ के साथ धोखाधड़ी है। हमारा संविधान एक व्यक्ति को सबसे आगे रखता है। यह कहना कि ग़रीब को सिर्फ आर्थिक तरक्की चाहिए, नागरिक और राजनीतिक अधिकार नहीं चाहिए, गलत है।

सवाल है कि जनता के द्वारा चुनी गई भारत की सरकार सुप्रीम कोर्ट में किस मंशा से कह रही थी कि ग़रीब के लिए नागरिक और राजनीतिक अधिकार ज़रूरी नहीं है। सरकार किसी ग़रीब को सब्सिडी के नाम पर ख़ैरात नहीं देती है। नागरिक या जनता सरकार की जवाबदेही हैं। इसलिए सब्सिडी देती है। इसके बदले में सरकार ग़रीब जनता से उसके अन्य अधिकार नहीं ले सकती है। वह भूखी रहे या पेट भोजना से भरा रहे, इसके बाद भी वह जनता सरकार के ख़िलाफ़ राय बना सकती है, उसके ख़िलाफ़ गोलबंद हो सकती है, मानवाधिकार के हनन के ख़िलाफ़ सड़क पर उतर सकती है। सुप्रीम कोर्ट के 9 जजों की संविधान पीठ ने इस बात को इतनी स्पष्टता से कहा है कि न सुनने की ज़िद करने वालों को भी सुनाई दे दे।

निजता का अधिकार का यह फ़ैसला एक नागरिक को उसके तमाम अधिकारों के प्रति सचेत करता है। यह वो अधिकार हैं जो एक लोकतंत्र को जीवंत बनाए रखने के लिए बेहद ज़रूरी हैं। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि सरकार के कार्यों की समीक्षा, उस पर सवाल करना, उससे असहमत होना, इन अधिकारों को भी संरक्षण प्राप्त है। संविधान पीठ ने कहा कि यह सब करने से लोकतंत्र में एक नागरिक सक्षम बनता है और वह अपना राजनीतिक चुनाव बेहतर तरीके से कर पाता है। संविधान पीठ ने प्रोफेसर अमर्त्य सेन के एक शोध का सहारा भी लिया कि सरकार जब निरंकुश हो जाती है तब अकाल या भूखमरी की स्थिति में भी लापरवाह हो जाती है। ब्रिटिश काल में बंगाल में जब अकाल पड़ा था तब उस घटना की रिपोर्टिंग नहीं हुई, सरकार पर जवाबदेही का भार ही नहीं पड़ा, जिसके कारण लाखों लोग मर गए।

इसलिए निजता के अधिकार यह फ़ैसला हर नागरिक को सक्षम करने का फ़ैसला है। पिछले तीन साल से हवा चली थी कि सरकार की आलोचना नहीं कर सकते हैं, असहमत हैं तो नेता या सरकार के विरोधी हैं, देश के विरोधी हैं, विकास के विरोधी हैं। सुप्रीम कोर्ट की संविधानपीठ ने कहा है कि ऐसा बिल्कुल कीजिए और ऐसा करते हुए ही आप भारत के लोकतंत्र को मज़बूत करेंगे। मेरी राय में इस 24 अगस्त के फ़ैसले ने निजता को परिभाषित तो किया ही है, नागरिक को भी बताया है कि उसका लोकतांत्रिक दायित्व क्या है और किस तरह से संविधान उसका बचाव करता है।

निजता का अधिकार मौलिक अधिकार है। यह फ़ैसला देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने सरकार की दलील ही ख़ारिज नहीं की है बल्कि अपने तमाम फ़ैसलों की विसंगतियों और दाग़ को भी मिटा दिया है। 9 जजों ने आमसहमति से निजता की जो व्याख्या की है, वो कानून की बोरिंग किताब में एक सुंदर सी कविता के समान है।

आर्टिकल 19 के तहत आपको बोलने, कहीं भी शांतिपूर्ण तरीके से जमा होने, आने-जाने और बसने की आज़ादी है। आर्टिकल 21 के तहत प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण नागरिक को हासिल है। एक तय प्रक्रिया के तहत ही किसी व्यक्ति की जान ली जा सकती है अन्यथा नहीं। संविधान पीठ ने कहा कि ठीक है कि इसमे निजता का अधिकार नहीं लिखा है मगर यह कहना सही नहीं है कि इनमें निजता का अधिकार नहीं है। इन सब अधिकारों से निजता के अधिकार की ही ख़ुश्बू आती है। प्राइवेसी किसी व्यक्ति की निजता का संवैधानिक मूल है। इसके बग़ैर कोई व्यक्ति गरिमा के साथ नहीं जी सकता है। किसी व्यक्ति के सम्मान, समानता, स्वतंत्रता की चाह ये सब भारतीय संविधान के आधारभूत स्तंभ हैं। जीवन और स्वतंत्रता संविधान की देन नहीं है बल्कि पहले से हैं। संविधान इनकी रक्षा भर करता है।

सुप्रीम कोर्ट ने निजता यानी प्राइवेसी को पूरी तरह से सूचीबद्ध तो नहीं किया है मगर साफ साफ कहा कि आपके किसके करीब होंगे, किससे यौन संबंध बनाएंगे, किससे शादी करेंगे, बच्चा पैदा करेंगे, आपका घर ये सब प्राइवेसी के मामले हैं। प्राइवेसी का अधिकार यह मान्यता देता है कि कोई व्यक्ति अपने जीवन के अनिवार्य पहलुओं पर नियंत्रण रखे। प्राइवेसी हमारी संस्कृति की विविधता और बहुलता को भी संरक्षण देती है। यह नोट करना भी ज़रूरी है कि कोई व्यक्ति पब्लिक स्पेस में है, उस वजह से उसकी निजता ख़त्म नहीं हो सकती है।

सबको पता है कि हमारी आपकी ज़िंदगी में कारपोरेट सेक्टर का भी अबाध हस्तक्षेप होता जा रहा है। संविधान पीठ ने इस पहलु पर भी विस्तार से विचार करते हुए तानाशाही और सनकी बादशाहों की दुनिया को समझने वाली सबसे बेहतर किताब 1984 का हवाला दिया है जिसे जार्ज ओरवेल ने लिखा था। इस किताब का ज़िक्र है निजता का विरोध करने वालों या फिर इसकी मांग का मज़ाक उड़ाने वालों पर करारा तमाचा है। संविधान पीठ ने कहा कि 1984 भले ही काल्पनिक राज्य था मगर आज यह हकीकत भी हो सकता है। आज जिस तरह तकनीकि विकास हुआ है उससे न सिर्फ राज्य बल्कि बड़े कारपोरेशन और प्राइवेट संस्थाओं को भी ‘बिग ब्रदर’ बनने की क्षमता प्रदान करता है। संविधान पीठ एक जगह कहती है कि किसी व्यक्ति के बारे में जानकारी जुटाना उस पर काबू पाने की शक्ति प्राप्त करना है। इस तरह की जानकारियों को जुटाने की संभावना आज कहीं ज्यादा है जिनका इस्तमाल असहमति का गला घोंटने में किया जा सकता है। इसलिए ऐसी सूचनाएं कहां जमा होंगी, उनकी शर्तें क्या होंगी, जवाबदेही क्या होगी, इन सब बातों को लेकर रेगुलेशन बनाने की सख़्त ज़रूरत है।

समलैंगिक जमात अपने अधिकारों के लिए संघर्षरत है। इस फैसले ने उनके संघर्ष को ताकत दी है। आए दिन इस बात को लेकर चार लोग हंगामा करने लगते हैं कि एक धर्म की लड़की दूसरे धर्म के लड़के से शादी कर रही है। उम्मीद है इस तरह के फिज़ूल की चीज़ों पर भी विराम लगेगा। खाने पीने से लेकर पहनने तक की विविधता को भी सुप्रीम कोर्ट ने निजता के अधिकार के तहत रेखांकित किया है। यह ध्यान रखना चाहिए कि कोई भी अधिकार निर्बाध नहीं है। वाजिब अंकुश होता है लेकिन सामान्य तौर पर कोई आपकी ज़िंदगी में दखल नहीं देगा क्योंकि निजता का अधिकार मौलिक अधिकार है। फ़ैज़ान मुस्तफ़ा ने कहा कि मौलिक अधिकार का मतलब है जनता का सरकार पर अंकुश न कि सरकार का जनता पर अंकुश। आज का फ़ैसला भारत की जनता की जीत है। इस फ़ैसले ने वाकई सर्वोच्च न्यायलय को अंतिम जन का न्यायालय बना दिया है। इस फ़ैसले के लिए सुप्रीम कोर्ट का शुक्रिया।