…और PM मोदी के नए इंडिया में किसानों की उम्मीदों पर पानी फिर गया: रवीश कुमार

फाइनेंशियल एक्सप्रेस ने लिखा है कि 500 कंपनियों ने मार्च की अपनी तिमाही रिपोर्ट में नुकसान दिखाया है। पिछली पांच तिमाही में यह सबसे ज़्यादा है। इतनी बड़ी संख्या में कंपिनयों ने घाटे की रिपोर्ट नहीं दी थी। बिजनेस स्टैंडर्ड का कहना है कि कच्चे माल के दाम धीमी गति से बढ़ रहे हैं मगर नगदी का प्रवाह कम हो गया है। बैंक, वित्तीय कंपनियां, मेटल वगैरह को छोड़ दें तो 1893 कंपनियों के मुनाफे में 15 प्रतिशत की कमी आई है।

बिजनेस स्टैंडर्ड की पहली ख़बर है कि मिड कैप के शेयरों में उछाल के कारण इस कैटगरी की कंपनियों के प्रमोटर भी फायदे में आए हैं। इसके कारण भारत में कुछ और अरबपति पैदा हो गए हैं।

बिजनेस स्टैंडर्ड की एक और ख़बर है कि 25,000 मेगावाट उत्पादन क्षमता वाली कंपनियों के लिए ख़रीदार खोजे जा रहे हैं। मगर मिलना मुश्किल हो रहा है। इनमें से कई कंपनियां उत्पादन कर रही हैं और कई निर्माण की प्रक्रिया में हैं। इनके प्रमोटर अपने कर्ज़ का बोझ उतारने के लिए बेचना चाहते हैं। अख़बार ने सूत्रों के हवाले से लिखा है कि कई कंपनियां बिजली पैदा करने के लिए तैयार बैठी हैं मगर राज्यों के वितरण निगम अतिरिक्त बिजली ख़रीद के लिए कोई टेंडर ही नहीं निकाल रहे हैं। बैंकों को लग रहा है कि बैठे बैठे ये कंपनियां एन पी ए में न बदल जायें।

इस सेक्टर से जुड़े किसी जानकार ने अखबार से कहा है कि औद्योगिक गतिविधियां धीमी हैं। राज्यों के बिजली बोर्ड की हालत खराब है। जितनी बिजली चाहिए वो एन टी पी सी और राज्यों की कंपनियों से पूरी हो जा रही है। प्राइवेट कंपनियों को नुकसान उठाना पड़ रहा है। सेंट्रल इलेक्ट्रिसिटी अथारिटी का अनुमान था कि 2022 तक भारत में 289 गीगा वाट बिजली की ज़रूरत होगी लेकिन अब इसे घटाकर 235 गीगा वाट कर दिया गया है। जानकारों का कहना है कि 2022 तक इस सेक्टर में नए प्राइवेट निवेशक शायद ही अब दांव लगायें। उत्पादन क्षमता के अनुपात में मांग का प्रोजेक्शन कम है। इसके कारण 60,000 मेगावाट की क्षमता वाली निर्माणाधीन कंपनियों का भविष्य कमज़ोर लगने लगा है। पावर फाइनेंश कारपोरेशन ने रिपोर्ट किया है कि पहली बार इस सेक्टर का एन पी ए तीन सौ प्रतिशत बढ़ा है।

सुनीता नारायण ने एक लेख लिखा है। बिजनेस स्टैंडर्ड में ही। उत्तर प्रदेश के किसान खेतों में पोपलर के पेड़ लगाते हैं। उनका कहना है कि पोपलर का बाज़ार भाव गिर गया है। पोपलर की लकड़ी से प्लाइवुड, खेल के सामान और माचिस बनते हैं। कुछ साल पहले एक टन लकड़ी का दाम 20,000 था। अब यह गिरकर 2000 प्रति टन हो गया है। दाम मिल रहा था तब लोग पोपलर के पेड़ खूब लगा रहे थे। मगर 20,000 की जगह 2000 मिलेगा तो किसानों की उम्मीदों पर पानी फिर गया होगा. उधर राज्य सरकार ने इस दौरान प्रति टन पर लगने वाला शुल्क बढ़ा दिया है। बाज़ार का दाम गिर रहा है, सरकार का टैक्स बढ़ रहा है। लिहाज़ा किसानों का धीरज जवाब दे रहा है।

मध्यप्रदेश में गेहूं के दाम गिर गए हैं। भारतीय खाद्य निगम ने गेहूं की ख़रीद बंद कर दी है। बिजनेस स्टैंडर्ड ने इसकी रिपोर्टिंग की है। औसत गेहूं का दाम 1400 प्रति क्विंटल हो गया है। जबकि सरकारी दाम 1600 रुपये प्रति क्विंटल था। निगम का कहना है कि बहुत से किसानों ने उनके यहां पंजीकरण ही नहीं कराया था। उन्हें लग रहा था कि बाज़ार में बेचेंगे तो 1800 प्रति क्विंटल बिकेगा, जो कि नहीं हुआ।

बिजनेस अख़बारों को पढ़ा कीजिए। उन पर चासनी वाली ख़बरें छापने का ही दबाव रहता है मगर उसी बीच में वे हकीकत भी दिखा देते हैं।