मोदी सरकार के इस मंत्रालय का नाम ‘रोबोट मंत्रालय’ होना चाहिए: रवीश कुमार

मोदी सरकार के तीन साल पूरा होने पर शहरी विकास मंत्री वेंकैया नायडू ने शहरी विकास मंत्रालय के काम को लेकर कई चमत्कारिक दावे किये हैं। तीन साल में सिर्फ अमृत मिशन के तहत 6,737 की मंज़ूरी के आंकड़े ने मुझे हैरान कर दिया। मैंने साल के 365 दिनों में से रविवार के 52 दिन घटा दिये। फिर तीन साल 939 से 6,737 में भागा किया तो कैलकुलेटर ने बताया कि प्रति दिन 7 से अधिक योजनाओं को मंज़ूरी दी गई। एक प्रोजेक्ट अगर पंद्रह पेज का भी होता होगा तो शहरी विकास मंत्रालय ने हर दिन 105 पन्नों की प्रोजेक्ट रिपोर्ट पढ़कर उन्हें मंज़ूरी दी। हर प्रोजेक्ट के साथ कई पन्नों का अनुलग्नक भी होता है जिन्हें स्पाइरल बाउंड करके जमा किया जाता है। राज्यों से भेजे गए ये प्रोजेक्ट किसी कमरे में तो रखे ही जाते होंगे। उस जगह का क्या हाल होता होगा। यह सब जोड़ घटा कर मैं आनंदित होने लगा कि वाह हमारे मंत्रालयों के कामकाज़ में इतनी तेज़ी आ गई है। कहीं वहां आई ए एस की जगह रोबोट ने तो काम नहीं संभाल लिया है। अगर ऐसा है तो शहरी विकास मंत्रालय का नाम रोबोट मंत्रालय रख देना चाहिए। फिर मैं शहरी विकास मंत्रालय की साइट पर जाकर अध्ययन करने लगा। जो पता चला, उसमें त्रुटी की संभावना है, मगर जैसे जैसे पता चला, वैसे वैसे आप भी पढ़िये।

वेंकैया नायडू ने दिल्ली में एक प्रेस कांफ्रेंस कर दावा किया कि पिछले तीन साल में शहरी बुनियादी ढांचे में सुधार के लिए प्रति व्यक्ति निवेश को जो मंज़ूरी मिली है उसमें यूपीए के दस साल की तुलना में 300 प्रतिशत की वृद्धि आई है। पत्रसूचना कार्यालय की प्रेस रीलिज के अनुसार यूपीए के दस साल में मात्र 4.918 करोड़ की योजनाओं को मंज़ूरी दी गई थी। मोदी सरकार ने 2014-17 के बीच अगले पांच साल के लिए 15,417 करोड़ की योजनाओं को मंज़ूरी दी है। भारत जैसे देश के शहरों के उत्थान के लिए 15,417 करोड़ की राशि कुछ भी नहीं है फिर भी मंत्री जी के अनुसार यह पांच हज़ार करोड़ से तीन सौ प्रतिशत ज़्यादा तो है ही। अगर आप तीन सौ प्रतिशत से ज़्यादा प्रभावित नहीं है तो यह देखिये कि हर साल पांच हज़ार करोड़ की योजनाओं को ही मंज़ूरी मिली।

https://data.gov.in/keywords/jnnurm ये एक सरकारी वेबसाइट मालूम पड़ती है। यहां जाने पर पता चला कि 2005-12 के बीच जे एन एन यू आर एम के लिए मात्र 50,000 करोड़ की वास्तविक राशि का प्रावधान किया गया । मंत्री जी कह रहे हैं कि यूपीए के समय 2005 से 14 के बीच 4,918 करोड़ की योजनाएं मंज़ूर हुई थीं। इस वेबसाइट पर बताया गया है कि शहरी जल आपूर्ति, ठोस कचरा प्रबंधन, सीवेज, के लिए 15,000 करोड़ के रेंज में दिये जाने का अनुदान है।

शहरी विकास को गति देने के लिए एक मिशन तय किया गया था, जिसे 2005 से 2014 तक JNNURM कहा गया, 2014 में नाम बदल कर ATAL MISSION FOR REJUVENATION AND URBAN TRANSFORMATION ( AMRUT) कर दिया गया। JNNURM की वेबसाइट के अनुसार यह योजना सात साल के लिए 2005-6 से शुरू होती है। सात साल में इसके तहत 1, 20,536 करोड़ के निवेश की ज़रूरत बताई गई थी। वेकैंया नायडू की प्रेस कांफ्रेंस के बाद पत्र सूचना कार्यालय से जारी प्रेस रीलिज़ में कहा गया है कि JNNURM के तहत 1,18,034 करोड़ की योजनाओं को मंज़ूरी दी गई थी। उन्होंने यह नहीं बताया कि यूपीए ने 1, 20, 536 करोड़ के निवेश का लक्ष्य तय किया था और 1, 18, 034 करोड़ की योजनाओं को मंज़ूरी भी दे दी। क्या यूपीए के समय इतना चमत्कार हुआ था? Data.gov.in के अनुसार तो यूपीए के समय मात्र 50,000 करोड़ का वास्तविक प्रावधान किया गया था।

वेकैंया नायडू को यह बताना चाहिए था कि योजनाओं की मंज़ूरी और उसे साकार करने के लिए वास्तविक बजट के प्रावधान में कितना अंतर है। क्योंकि JNNURM की वेबसाइट अमृत के बाद बेकार हो गई है। इसलिए सरकार को ही आधिकारिक सूचना देनी चाहिए। यूपीए के समय कितना अंतर था और एन डी ए के समय कितना अंतर है। यूपीए के समय अगर तय लक्ष्य के बराबर योजनाएं मंज़ूर हो गईं तो उनमें से कितनी ज़मीन पर उतरीं और कितनी क़ाग़ज़ों में रह गईं।

वेंकैया नायडू बता रहे हैं कि मोदी सरकार के तीन साल के दौरान शहरी ढांचे में सुधार के लिए 4,13,474 करोड़ के निवेश की योजनाओं को मंज़ूरी दी गई है। क्या यह मंज़ूरी अकेले AMRUT के तहत दी गई है ? हो ही नहीं सकता है। कायदे से वेंकैया नायजू को JNNURM की तुलना AMRUT से ही करनी चाहिए मगर वे JNNURM की तुलना अपने समय के कुल शहरी ढांचागत सुधार के लिए मंज़ूर निवेश से कर देते हैं जो सही पैमाना नहीं है। ऐसा तो हो नहीं सकता है कि यूपीए के दस साल में JNNURM के अलावा कोई निवेश नहीं हुआ हो। वेकैंया कह रहे हैं कि AMRUT के तहत तीन साल में पंद्रह हज़ार करोड़ की योजनाओं को मंज़ूरी दी है। कहीं आंकड़ों की बाज़ीगरी तो नहीं है।

अमृत का लक्ष्य क्या है? इसका भी वही काम है जो JNNURM का था। इसके तहत शहरों में पब्लिक ट्रांसपोर्ट,जल आपूर्ति, कचरा प्रबंधन वगैरह की व्यवस्था को दुरुस्त करना था। आप भारत में किसी एक शहर का नाम बता दीजिए जहां इन दोनों योजनाओं के तहत पब्लिक ट्रांसपोर्ट में क्रांति आई है। कचरा प्रबंधन बेहतर हुआ हो? एकाध जगह ही मिलेगा। अमृत के तहत एक लक्ष्य यह भी है कि शहरों में हर घर को सीवेज और टैप वाटर से जोड़ा जाएगा। आप किसी भी शहर की किसी भी एक बस्ती का नाम बता दीजिए जहां यह काम पूरा हो गया हो। टैप वॉटर होगा भी तो टैप में पानी नहीं होगा। कम से कम वेकैंया नायडू को यह सब भी बताना चाहिए ताकि लोग वहां जाकर चेक कर सकें। जैसे आप इंदौर जाकर देख सकते हैं कि वहां वाकई स्वच्छता के मामले में बेजोड़ काम हुआ है। भले ही शहर की दीवारें मोटे मोटे नारों से अस्वच्छ कर दी गई हैं। फिर भी इंदौर में स्वच्छता का असर दिखता है। ऐस उदाहरणों से ज़्यादा समझ बनती है न कि मात्र आंकड़ों से।

अमृत की वेबसाइट पर गया। वहां भी JNNURM के लक्ष्य लिखे हुए हैं कि शहरों में सीवेज, टैप वाटर और पब्लिक ट्रांसपोर्ट को बेहतर करना है, जिससे वहां रहने वाले लोगों का जीवन स्तर बेहतर हो सके। पार्क वगैरह बनाने की भी बात है। अमृत के मिशन स्टेटमेंट में लिखा है कि पहले JNNURM के तहत शहरी विकास मंत्रालय प्रोजेक्ट दर प्रोजेक्ट को मंज़ूरी देता था। यानी ख़ुद देता था लेकिन अमृत मिशन के तहत राज्य अपने स्तर पर योजनाएं बनाते हैं,उनकी मंज़ूरी लेते हैं फिर फंड के लिए दिल्ली आते हैं। इसके लिए राज्य स्टेट एनुअल एक्शन प्लान SAAP बना कर देते हैं, यानी मंज़ूरी देने का काम केंद्र नहीं करता है।

अब आप इस बात को ध्यान में रखते हुए वेंकैया नायडू के एक और बयान पर ग़ौर कीजिए। वे कहते हैं कि मोदी सरकार के तीन साल में 6,737 प्रोजेक्ट को मंज़ूरी दी गई है। दस साल में JNNURM के तहत मात्र 3,138 प्रोजेक्ट को ही मंज़ूरी दी गई। यानी तीन साल में दस साल के मुकाबले 215 प्रतिशत ज़्यादा काम हुआ। अमृत की वेबसाइट पर 6,737 नाम की किसी संख्या का ज़िक्र नहीं है और न ही मंज़ूर योजनाओं की सूची मौजूद है। जब सब कुछ वेबसाइट वेबसाइट ही है तो ये सब जानकारी वहां क्यों नहीं है।

ध्यान रखिये कि अमृत का मिशन स्टेटमेंट कहता है कि राज्य खुद प्लान बनायेंगे और मंज़ूरी देंगे। केंद्र उन योजनाओं के लिए अपने हिस्से का पैसा देगा। यानी केंद्र ने अपना काम हल्का कर लिया है। फिर राज्यों के बनाए और मंज़ूर किए गए प्रोजेक्ट का श्रेय वेंकैया नायडू अकेले क्यों ले रहे हैं? राज्यों को श्रेय क्यों नहीं दे रहे हैं? यह क्यों नहीं बता रहे कि किस राज्य ने बेहतर काम किया है। जबकि अमृत का मिशन स्टेटमेंट कहता है कि SAAP इसलिए है ताकि संघवाद की भावना के तहत योजनाएं बनाने में राज्यों की भागीदारी हो।

अमृत की वेबसाइट पर SAAP के कॉलम को क्लिक किया। भारत में 29 राज्य हैं और 7 केंद्र शासित प्रदेश हैं। 2015-16 की सैप की सूची में सभी राज्य और केंद्र शासित प्रदेश हैं। यह SAAP का पहला चरण है। 2016-17 की SAAP-2 की सूची में सिर्फ 18 राज्य और केंद्र शासित प्रदेश हैं। चंडीगढ़, गोवा, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, हिमाचल प्रदेश, जम्मू कश्मीर, झारखंड, मेघालय, ओडिशा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बंगाल, त्रिपुरा, मणिपुर, मिज़ोरम, तमिलनाडु। बाकी राज्यों ने अपना सैप-2 का प्लान क्यों नहीं दिया है, इसका कोई ज़िक्र नहीं है।

http://amrut.gov.in/saap16_17.aspx पर कई दिलचस्प जानकारी मिली। अमृत के तहत राज्य अपनी तरफ से जिन तैयार योजनाओं को भेजते हैं,उसके लिए केंद्र कुछ शर्तों के आधार पर फंड दिया जाता है। सबसे ताज़ा जानकारी यह है कि 19 मई की एपेक्स कमेटी की बैठक में एक कमेटी बनाने का फैसला हुआ है जो विश्व बैंक से डेढ़ अरब डॉलर के ऋण के लिए बातचीत करेगी। अमृत के तहत योजनाओं की समीक्षा करने वाली एपेक्स बाडी की तीन साल में 17 बैठक हो चुकी है। यह भी एक औसत आँकड़ा है। 11 अप्रैल 2017 की बैठक के मिनट्स वेबसाइट पर हैं जिनमें 12 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की प्रगति की समीक्षा की गई है।

एपेक्स कमेटी के मिनट पढ़ते हुए लगा कि जितनी योजनाएं दिल्ली आती हैं,उनमें से आधी भी मंज़ूर नहीं होती हैं। केंद्र अपनी तरफ से मंज़ूरी देने के बाद पैसा बराबर दे देता है मगर कई राज्य
वो पैसा अमृत के लिए बने मिशन निदेशालय को समय से नहीं भेजते हैं। कई मामलों में नहीं भी देते हैं। कई राज्य प्रोजेक्ट को पूरा करने के लिए अपना हिस्सा या तो नहीं देते हैं या फिर पूरी रकम नहीं देते हैं। कई बार आधी से भी कम रकम देते हैं। ऐसी स्थिति में आप सोच सकते हैं कि जो योजनाएं मंज़ूर की जाती हैं वो किस तरह से पूरी हो रही हैं।

वेकैंया नायडू ने सिर्फ मंज़ूर की गई योजनाओं की संख्या बता दी जो सुनने में आकर्षक लगती हैं, मगर उन योजनाओं की वास्तविक हकीकत अभी हमारे सामने नहीं हैं। जैसे 17 वीं बैठक के मिनट्स में लिखा है कि 12 राज्यों ने सैप वन के तहत 20,162 करोड़ की मंज़ूर योजनाएं बनाकर दिल्ली भेज दी हैं। सैप द्वितीय के तहत 25,182 करोड़ की योजनाएं भेजी गईं हैं। मिनट्स में लिखा है कि सैप वन यानी 20,162 करोड़ की योजना का सिर्फ 20 प्रतिशत ही मंज़ूर हुआ है। सैप-1, साँप-2 को मिला कर लिखा है कि पैतालीस हज़ार करोड़ की योजना में से 10,678 करोड़ की योजना को ही मंज़ूरी मिली है। सैप के दोनों खंडों की योजनाओं को जो डीपीआर मंज़ूर हुआ है वो मात्र 42 प्रतिशत है। ये तो हाल है।

17 वीं बैठक में तय होता है कि अगर कोई राज्य सैप वन और टू की मंज़ूर योजनाओं का पचास फीसदी DPR मंज़ूर करे तभी आगे की योजनाओं को मंज़ूरी देने पर विचार किया जाएगा। जो जमा किया गया है उसे तो मंत्रालय सौ फीसदी मंज़ूर नहीं कर रहा है,आगे की बात कर रहा है! मतलब साफ है कि सिर्फ प्रोजेक्ट को मंज़ूरी ही मिल रही है। वेकैंया नायडू को बताना चाहिए कि मंज़ूर योजनाओं में से कितनी योजनाओं का DPR बना और कितनी योजनाओं का टेंडर हो कर काम शुरू हो गया।

एपेक्स कमेटी की 17 वीं बैठक में कई राज्यों का हिसाब मिलता है। महाराष्ट्र ने SAAP-1 के लिए 1989 करोड़ और SAAP-2 के 2489 करोड़ की योजना मंज़ूरी के लिए दिल्ली भेजी। सैप वन के 1989 करोड़ में से मात्र 865 करोड़ की योजना को मंज़ूरी मिली।

यहाँ दो बातें तय हैं। केंद्र ने राज्यों को पैसा देने के मामले में एक सीमा तय की है। सारी योजना मंज़ूर नहीं होती मगर जितने की होती है उसका केंद्र अपना हिस्सा तुरंत दे देता है। राज्य ही अपना पूरा हिस्सा समय से नहीं देते हैं या देते ही नहीं हैं। महाराष्ट्र ने भी अपने हिस्सा का पूरा पैसा नहीं दिया है। SAAP-1 के लिए महाराष्ट्र को 214 करोड़ देना था मगर दिया 91.49 करोड़। आप सोच सकते हैं कि ज़मीन पर काम शुरू होने की गति क्या होगी।

नोट: हम भी ख़्वामखाह समझ बैठे थे कि शहरी विकास मंत्रालय में कोई रोबोट आ गया है जो दनादन प्रोजेक्ट बना रहा है, उन्हें मंज़ूर कर रहा है और पैसे दे दे रहा है और ज़मीन पर काम चालू। बस नए विषयों के अध्ययन की ज़िद ने रविवार के कई घंटे बर्बाद कर दिये। अगर मंत्री जी खुद ही सही सही बता देते तो एक नागरिक का इतना समय बच जाता। मैंने कहा कि नया नया विषय है इसलिए अगर मेरे लेख में कोई चूक होगी तो मैं सुधार करने के लिए तैयार हूं।