इसे पढ़कर लग तो रहा है कि कुछ गड़बड़ है जिसे कोई खुलकर नहीं बोल रहा है: रवीश कुमार

बिजनेस स्टैंडर्ड की ख़बर आसमान छूते सेंसेक्स से जुड़ी कंपनियों की हालत तो कुछ और बयां करती है। पवन बुरुगुला और कृष्ण कांत की रिपोर्ट कहती है कि सेंसेक्स से जुड़ी एक तिहाई से ज़्यादा कंपनियों के शेयर 2008 के क्रैश से पहले के स्तर पर पहुंच गए हैं। उस रेड ज़ोन में पहुंच गए हैं जिसके बाद क्रैश हुआ था।

इसके लिए स्टैंडर्ड डेविएशन को समझना होगा जिसे दस साल की कीमतों के आधार पर आंका जाता है। छह कपंनियों के शेयर दस साल की कमाई( price to earning) के दो स्टैंडर्ड डेविएशन से ऊपर हैं। मतलब 30 इंडेक्स स्टाक में से दस के शेयरों के मूल्य दस साल की कमाई के औसत से 68 फीसदी ज़्यादा है।

अगर कोई शेयर एक स्टैंडर्ड डेविएशन (SD) से ज्यादा भाव पर है तो उसे रेड ज़ोन में माना जाता है। अगर दो स्टैंडर्ड डेविएशन हुआ तो इसका मतलबहुआ कि औसत से 95 फीसदी ज़्यादा मूल्य है। इसे ही बबल यानी बुलबुला कहा जाता है। अगर मैंने स्टैंडर्ड डेविएशन का सही अनुवाद किया है या समझा है तो। न भी किया है तो अख़बार कहता है कि 2008 के पहले का बुलबुला एक बार फिर से दिखने लगा है। 1 जनवरी 2008 को 30 इंडेक्स के 11 स्टाक औसत से एक SD प्वाइंट ज़्यादा पर पहुंच गए थे।

इन कंपनियों के शेयरों के बुलबुला ज़ोन में होने के ख़तरे होते हैं। BSE मिड कैप का भी यही आलम है। मिड कैप स्टाक प्राइस टू अर्निंग से 31.6 गुना ज़्यादा है। 2007 में यह 32.9 तक पहुंच गया था। इस कारण बाज़ार की समीक्षा करने वाले परेशान हैं। वे मौजूदा बाज़ार के वैल्यूएशन से सहज नहीं हैं। उन्हें लगता है कि निवेशक स्टाक की कीमतों से ज़्यादा प्रभावित हो गया है। वो कंपनियों के वित्तीय प्रदर्शन को नज़रअंदाज़ कर रहा है। इन कंपनियों के शेयरों की कमाई में कोई वृद्धि नहीं हुई है। कई मामलों में तो पांच साल की तुलना में घट कर आधी रह गई हैं।

अखबार ने किसी संजीव प्रसाद का बयान लिया है जो इस तरह समझाते हैं कि शेयर बाज़ार में कंपनियों के भाव तो आसमान चढ़ गए हैं लेकिन उनकी कमाई उस अनुपात में नज़र नहीं आती है। एक सज्जन का कहना है कि अगले दो तीन तिमाही में इन कंपनियों की कमाई नहीं सुधरती है तो संकट आ सकता है। मूल रूप से इस लेख का सार यह है कि कंपनियों की कमाई तो घट रही है मगर उनके शेयरों के भाव कैसे बढ़ रहे हैं। दोनों में कोई मेल नहीं दिखता है। यह एक ऐसा रास्ता है जहां से क्रैश दिखाई देता है।

19 जून को बिजनेस स्टैंडर्ड ने अपनी पहली ख़बर बनाई थी उसे देखेंगे तो आज की खबर का भाव समझ आ सकता है। कृष्ण कांत की ही ये ख़बर है। इसके अनुसार 201617 में वित्तीय रूप से संकट का सामना करने वाली कंपनियों की सूची लंबी हो गई है। जो बड़ी कंपनियां लिस्टेट हैं उनका ग्यारह प्रतिशत अपने कर्ज़ पर ब्याज़ चुकाने की स्थिति में नहीं हैं. मूल तो दूर वे ब्याज़ तक नहीं दे सकी हैं। 85 कंपनियों का मुनाफा सुस्त है। अपर्याप्त है। जितना ब्याज़ देना है उससे कम लाभ कमा रही हैं। 2015-16 में ऐसी कंपनियों की संख्या 67 थी, 2016-17 में 85 हो गई है। इन 85 कंपनियों को 2016-17 में 60,000 करोड़ रुपया ब्याज़ का देना था मगर इनका आपरेटिव मुनाफा हुआ मात्र 12,000 करोड़। यानी बैंकों का कर्ज़ और नहीं लौट सका। एन पी ए बढ़ता ही जा रहा है। जब कोई कंपनी का मुनाफा, ब्याज़ से कम होता है तो इसका मतलब है कि उसकी देनदारी एन पी ए में चली गई।

कृष्णा कांत लिखते हैं कि इन 85 कंपनियों पर कुल 5.04 लाख करोड का कर्ज़ है। 2015-16 में 4.6 लाख करोड़ का कर्ज़ था यानी 2016-17 में कर्ज़ की देनदारी में चालीस हज़ार करोड़ का इज़ाफ़ा ही हो गया है। ऐसी कंपनियों की संख्या अभी बढ़नी ही है। मतलब 2016-17 की चौथी तिमाही में भी कंपनियों का वित्तीय संकट दूर नहीं हुआ है। जिनकी हालत ख़स्ता है, वो ख़स्ता ही होती जा रही है।

संकट के कारणों में नोटबंदी भी शामिल है जिसके बारे में किसी कारपोरेट को बोलने की हिम्मत नहीं होती है कि कह दे कि इसके कारण हम बर्बाद हुए हैं। एक कारण स्लोडाउन भी है। मांग में कमी आई है। कृष्णकांत कहते हैं कि तिमाही के नतीजे आते हैं उसमें भी यही ट्रेंड देखने को मिला है। 744 कंपनियों पर ब्याज़ की देनदारी उनके लाभ से ज्यादा हो गई है। पिछली तिमाही में ऐसी कंपनियों की संख्या 665 थी। मार्च 2016 में 773 ऐसी कंपनियां थीं मगर अगली तिमाही में सुधार हुआ था। 2015-16 की चौथी तिमाही में कंपनियों ने 29,834 करोड़ का घाटा रिपोर्ट किया था जो 2016-17 में बढ़कर 37,603 करोड़ हो गया। कृष्णा कांत की रिपोर्ट में कहा गया है कि यह विश्लेषण 3,028 कंपनियों के 20 तिमाही के नतीजों के आधार पर किया गया है।

बिजनेस अख़बारों को ध्यान से पढ़ना पड़ता है। किसी दिन उछाल की ख़बरें होती हैं तो किसी दिन गिरावट की मगर निरंतरता से देखने के बाद लगता है कि अर्थव्यवस्था की हालत वैसी नहीं है जैसा विज्ञापन पर करो़ड़ों ख़र्च करने के बाद किया जा रहा है। पावर सेक्टर की हालत आपने देख ही ली है। आख़िर टाटा और अडानी जैसी कंपनी को सरकारी कंपनी को अपना शेयर एक रुपये में बेचने की नौबत क्यों आई। सरकार कहती है कि 7000 प्रकार के सुधार हुए हैं मगर नतीजा तो ऐसा नहीं बताता है। सरकार इन आंकड़ों को अपनी तरफ से क्यों नहीं रखती जिसे कृष्ण कांत जैसे रिपोर्टर रख रहे हैं। आज के ही इकोनोमिक्स टाइम्स की पहली ख़बर है कि रिजर्व बैंक के एक फैसले से बैंकों को पचास हज़ार करोड़ का झटका लग सकता है। यह ठीक है कि हम इन बातों का सही सही मतलब नहीं समझ रहे हों मगर इन्हें पढ़कर लग तो रहा है कि कुछ गड़बड़ है जिसे कोई खुलकर नहीं बोल रहा है।