ख़ुद के स्वागत के लिए 9 किमी सड़क को 70 करोड़ रुपए में सजवाने वाले पहले PM बने मोदी: रवीश कुमार

एक राजनेता अपनी कामयाबी के शिखर दिनों के दौरान किस तरह की संस्कृति गढ़ता है, उसे उस समाज के लिए तो सोचना ही चाहिए जहां से वो आता है। राजकोट से दिल्ली आ गए प्रधानमंत्री को एक बार सोचना चाहिए कि नौ किमी के उनके रोड शो के बहाने यात्रा मार्ग को सजाने में जो ख़र्च किया गया है, क्या वो इस साधारण मुल्क के लिए वाजिब था? क्या प्रधानमंत्री की यात्रा की तैयारी को लेकर पारदर्शिता नहीं होनी चाहिए? क्या जनता को नहीं बताना चाहिए कि कौन कौन सी एजेंसियों ने पैसे खर्च किये, जिन लोगों ने अपने स्तर पर ख़र्च किये उनका हिसाब क्या है ताकि नौ किमी सड़क की सजवाट का वास्तविक ख़र्च हम जान सकें और अनुमान लगाने से बचें कि 20 से 70 करोड़ रूपये ख़र्च हुए हैं। 9 किमी की सड़क की सुरक्षा भी कम चुनौती नहीं होगी। प्रधानमंत्री की सभा है, ज़ाहिर है तैयारियां भी उसी स्तर की होती होंगी। एक रैली की सभा के लिए कितने सुरक्षा कर्मी लगेंगे और 9 किमी के रोड शो के लिए कितने। इसका ख़र्चा न तो कोई जानता है और न जान पायेगा।

क्या सादगी और शुचिता की बात करने वाले प्रधानमंत्री को इतने महंगे और भव्य कार्यक्रमों में हिस्सा लेना चाहिए? वे योग के बहाने जीवन शैली बदलने की बात कर रहे हैं, क्या वे राजकोट के रोड शो के बहाने राजनीतिक शैली बदलने की बात करना चाहेंगे? वे अपनी तमाम आलोचनाओं को लाभ में बदल देने में माहिर रहे हैं, फिर भी क्या भारत के प्रधानमंत्री से यह उम्मीद करना इतना जोखिम भरा और बेकार है कि 70 करोड़ के ख़र्च से 9 किमी सड़क की सजावट क्या उचित थी? अभी अभी तक मोदी सरकार के तीन साल पूरे होने पर देश भर में जश्न मना है। विज्ञापनों से लेकर भाषणों पर करोड़ों खर्च हुए हैं। टीवी चैनल उनके रोड शो को और भव्य बना देंगे, लेकिन क्या अब हम यह मान लें कि भारत की राजनीति में सादगी की उम्मीद करना या शाहख़र्ची को लेकर सवाल करने की परंपरा की मृत्यु हो चुकी है?

आदर और ताकत के प्रभाव में भले कोई सवाल न करे मगर यह सवाल उनके सामने खड़ा किया जाना चाहिए कि प्रधानमंत्री किस तरह की राजनैतिक शैली की रचना कर रहे हैं। दूसरे नेता भी रोड शो करते हैं मगर सूरत के बाद राजकोट का रोड शो की तुलना उन रोड शो से नहीं की जा सकती है। उन नेताओं के रोड शो भी कोई सस्ते नहीं होते हैं मगर राजकोट शहर में 9 किमी लंबे मार्ग की सजावट निश्चित रूप से भव्य और विहंगम थी। प्रधानमंत्री ने रोड शो का स्केल काफी व्यापक कर दिया है और पैसे के मामले में असंभव। सूरत के रोड शो में इस सवाल पर ध्यान नहीं गया लेकिन जब टीवी पर आ रहे राजकोट के रोड शो के वीडियो में प्रधानमंत्री को देखा तो मन उदास हो गया।

अपनी ही जनता और उसके गहरे प्यार के बीच प्रधानमंत्री एक त्रासदी के रूप में दिखाई दे रहे थे। उनके चेहरे पर छाई प्रसन्नता चंद घंटे पहले गांधी और बिनोबा के नाम से अहिंसा की बात करने वाले सेवक प्रधानमंत्री का मज़ाक उड़ा रही थी। ऐसा लगा कि स्कूल की वाद-विवाद प्रतियोगिता में कोई छात्र नशाबंदी के विरोध में शानदार भाषण देकर इनाम जीत जाता है मगर शाम को उसी इनाम के पैसे से किसी पब में पार्टी कर रहा हो। मुझसे नहीं देखा गया यह जानते हुए भी कि राजकोट की जनता अपना प्यार प्रधानमंत्री उड़ेल रही है। जब देश में किसान आत्महत्या करना बंद कर देंगे और इसके लिए इतना ख़र्च करके प्रधानमंत्री का स्वागत करेंगे तब भी मैं यही बात लिखूंगा।

यह लेख प्रधानमंत्री की आलोचना भी है और निवेदन भी है कि वे एक बार ठहर कर सोच लें। ठीक है कि लोग उनकी राजनीतिक सफलता को स्थायी मान चुके हैं, कि अब वही सब चुनाव जीतेंगे लेकिन इसके बाद भी चंद सवालों ने अभी दम नहीं तोड़े हैं। उन्हें सोचना चाहिए कि क्या गांधी जी इस देश में इतना महंगा रोड शो और रोड शो के लिए शहर की ऐसी सजावट को मंज़ूर करते? वो भी अपने गुजरात में ? दरोगा और भीड़ के डर से कब तक कोई सवाल नहीं करेगा? क्या इस शाहख़र्ची के बग़ैर राजकोट की जनता उन्हें प्यार नहीं करती? बहुमंज़िला इमारत पर यह पोस्टर लटका है। शायद बीस मंज़िला इमारत पर लटक रहा है।

अभी अभी तो नीदरलैंड से लौटे हैं जहां के प्रधानमंत्री ने साइकिल भेंट की। वहां के प्रधानमंत्री मार्क रट साइकिल से दफ्तर जाते हैं। भारत के प्रधानमंत्री क्या मेसेज दे रहे हैं? क्या यही उनका नियति से साक्षात्कार है? क्या कैमरे के क्लोज़ अप में राजकोट की सड़कों पर प्रवाहित हो रहे वही प्रधानमंत्री थे, जो लाल बत्ती का संस्कार ख़त्म करने का श्रेय लेते हैं, अपने निवास का नाम लोकसेवक मार्ग रखते हैं। बातों में इतनी सादगी है तो काम में क्यों नहीं दिखती है। ऐसा क्या हो गया है राजकोट में कि उनके आगमन पर इतना पैसा लुटाया गया। ठीक है इसका आयोजन प्रधानमंत्री ने नहीं किया लेकिन क्या उन्हें नहीं पता होगा कि उनके स्वागत में इतना पैसा ख़र्च किया जा रहा है? क्या वे बार बार महंगी राजनीति की संस्कृति को मान्यता नहीं दे रहे हैं?

राजकोट में नौ किमी लंबा रोड शो हुआ। पूरे रास्ते में पड़ने वाले चालीस गोलंबरों को थीम के आधार पर सजाया गया। मोदी सरकार की योजनाओं के आधार पर उनकी जगमग सजावट की गई। सरकारी इमारतें भी सजी हुई थी और हाउसिंग सोसायटी ने भी अपनी तरफ से सजावट की थी। अब यह कौन साबित कर पाएगा कि उन्हें सजावट करने के लिए कहा गया या वाकई खुशी से उन्होंने इतने पैसे ख़र्च करके सजा दिया। लेज़र शो भी चल रहे थे जहां लेज़र किरणों के ज़रिये सरकार की कामयाबी की थ्री डी रचना की गई थी। जगह जगह सेल्फी प्वांइट बने थे। प्रधानमंत्री का कटआउट रख दिया गया था, जहां लोग जाकर सेल्फी खींचा रहे थे। चेन्नई के मरीना बीच पर सारे फिल्म स्टारों के सेल्फी कट आउट रखे हुए होते हैं जहां लोग अपने पसंदीदा स्टार के साथ फोटो खींचाते हैं। मैंने कस्बा पर लेख भी लिखा था इस बारे में। कहीं वहीं से ये आइडिया तो नहीं आया!

ऐसा लगता है कि किसी प्राइवेट कंपनी ने इस योजना का ब्लू प्रिंट तैयार किया हो और उसके हिसाब से सरकारी एजेंसियों और लोगों से कहा गया हो कि इसे साकार कीजिए। योजनाएं साकार नहीं हो रही हैं मगर योजनाओं के स्लोग और कटआउट सपनों की तरह साकार किये जा रहे हैं। लोकसभा चुनाव के दौरान पढ़ने को मिला था कि प्रधानमंत्री के पास अपनी एक टीम होती है जो इस तरह के कार्यक्रमों की रचना करती है। चाय पर चर्चा से लेकर थ्री डी से देश के दूसरे हिस्सों में प्रधानमंत्री अवतार मुद्रा में हाज़िर हो जाते थे। क्या इस बार भी कोई नई एजेंसी आ गई है जो सरकारी एजेंसियों को आइडिया दे रही है कि ऐसे किया जाना चाहिए! या सरकार ही अब इवेंट मैनेजमेंट कंपनियों और विज्ञापन एजेंसियों से बेहतर काम करने लगी है।

लोगों को मेला पसंद आता है। प्रधानमंत्री रैली का मनोविज्ञान जानते हैं। यह अच्छी बात है कि उन्हें जनमानस की इतनी गहरी समझ है लेकिन यह भी देखना होगा कि उनकी इस गहरी समझ से राजनीति को क्या लाभ होता है? समाज को क्या फायदा होता है? क्या प्रधानमंत्री को अपने राज्य के मुख्यमंत्री से नहीं कहना चाहिए था कि अभी विदेश यात्राओं से लौटा हूं, किसानों की आत्महत्या की ख़बरें आ रही हैं, मेरे लिए उचित नहीं होगा कि इतने महंगे रोड शो में शामिल होना? क्या भारत की राजनीति अब पैसे के मामले में असंभव होती जाएगी, जिसे जीतना होगा, उसे मोदी जी की तरह राजनीति को सीरीयल के सेट में बदलना होगा।

भारत का समाज महंगी शादियों से टूट रहा है। लालची होता जा रहा है। वही हाल राजनीति का हो गया है। हमारे यहां शादियों में कितनी महंगी और भव्य सजावट होती है, उसी तरह से राजनीति में भी होने लगी है। शादियों के पंडाल तक पहुंचने के रास्ते को जिस तरह से सजाया जाता है, उसी तरह राजकोट की सड़क को सजाया गया था। लग रहा था कि बारात निकल रही है। बिहार में छठ पूजा में भी लोग चंदा करके घाट जाने के रास्तों को सजा देते हैं। बंगाल में दुर्गापूजा के दौरान कोलकाता इसी तरह से सजा मिलता है. चंदनपुर की लाइटिंग से शहर की हकीकत गायब हो जाती है, रिक्शावालों को हटा दिया जाता है और लाइटिंग से रिक्शा वाले को बना दिया जाता है। जिसमें वो भक-भुक जलता हुआ चलता रहता है। तो आसमान से कुछ भी नहीं आया है लेकिन जिस नेता को जनता इतना पसंद करती है, क्या वो उस साधारण जनता के लिए सबसे महंगी राजनीति का ही नमूना पेश करेगा? क्या इस तरह की भव्य राजनीति किए बग़ैर वे सफ़ल नहीं हो सकते?

अप्रैल में सूरत यात्रा के दौरान भी शहर को इसी तरह सजाया गया था। अब राजकोट को सजाया गया है। लग रहा है एक पैटर्न बन रहा है। अब प्रधानमंत्री दिन के उजाले में शहर की वास्तविकता को नहीं देखना चाहते इसलिए जगमग सजावटों से सजी रात में अपने विकास का नमूना दिखाना चाहते हैं। सीरीयल की तरह रोड शो के मार्ग को एक सेट में बदला जा रहा है. ताकि लोग वहां जमा हो और रौशनी की चकाचौंध से बौरा जाएं। पहले उन्होंने रैलियों को सेट में बदल दिया, अब रोड शो को सेट में बदलने की तैयारी लगती है। यह संकेत के तौर पर दिख रहा है कि 2019 के लोकसभा चुनावों के दौरान जनता राजनीति का बाहुबली संस्करण देखने वाली है। बाहुबली के महंगे सेट की पृष्ठभूमि में कथाओं को ऐसे पेश किया जाएगा कि देखने वाला दिमाग बाद में लगाएगा, पहले देखेगा, सेल्फी लेगा। हर शहर में किसी न किसी योजना को इसी तरह से सजा दिया जाएगा। सजाने का ख़र्चा उस विभाग पर लादा जाएगा, विज्ञापन अब सिर्फ टीवी अखबार और पोस्टर में ही नहीं होगा, पुल, रेलवे ट्रैक, इमारतों को भी विज्ञापन में बदल दिया जाएगा।

इस तरह की भव्यता राजनीति को लेकर हमारे बीच मौजूद उन स्मृतियों की मौत का एलान है, जिनके आधार पर हम नेताओं की कार्यशैली की तुलना करते हैं। हमारी राजनीति में अब कुछ बचा नहीं हैं। भावुक मुद्दों की अपनी एक सीमा है। अगर उन्हीं मुद्दों को एक सीरीयल के सेट में बदल दिया जाए तो जनता टीवी छोड़कर शहर के मेले को देखने के लिए उमड़ पड़ेगी। शहर को सिर्फ सजाया ही नहीं गया बल्कि उसे व्हाट्स अप में शेयर करने लायक भी बनाया गया है। ऐसी तस्वीरें फेक बनकर हमारे जनमानस का हिस्सा होने लगीं थीं अब उस फेक को असली बनाया जा रहा है।

आपको याद होगा, हाल ही में गृहमंत्रालय की एक रिपोर्ट में भारत की सीमा की ऐसी सजावट की तस्वीर पेश की गई थी, ऑल्ट न्यूज़ ने पकड़ा कि ये तस्वीर तो स्पेन की है। गृहमंत्रालय ने माफी भी मांगी। अब खेल पलट रहा है। असली को ही फेक की तरह पेश किया जा रहा है। राजकोट शहर की दूसरी हकीकतों पर रौशनी का पर्दा डाला जा रहा है। अब राजकोट के लोगों के लिए ही राजकोट उस 9 किमी के दायरे में जगमगाता रहेगा जहां से प्रधानमंत्री गुज़रे थे और जिसके बाद मेरा सवाल गुज़र रहा है। क्या भारत के प्रधानमंत्री ने सादगी का रास्ता छोड़ ही दिया है?