अनारकली हमारी नाकामी की एक और दास्तान है: रवीश कुमार

अविनाश के कहने पर कस्बा बनाया था। बहुत दिनों तक पासवर्ड भी उन्हीं के पास रहा। मैं लिखने के रास्ते पर चल निकला। लिखते लिखते ये लगा कि ये दुनिया को बदलने का ज़रूरी अभ्यास है। बहुत देर बाद पता चला कि लिखने से दुनिया नहीं बदलती है। लिखने वाला बदलता है। दुनिया भर की प्रतिक्रियाएँ उसे नए सिरे से गढ़ती हैं और लिखने के चक्कर में आप ख़ुद को तोड़ते चलते हैं। ढहाते चलते हैं। कस्बा की वजह से कई तकलीफ़देह प्रक्रियाओं से गुज़रा। अब अविनाश के बनाए कस्बा पर उन्हीं की पहली फिल्म की प्रतिक्रिया पढ़िये ।

अनारकली ऑफ़ आरा मज़ेदार फिल्म है। पैसा वसूल। उसूल भी वसूल। बहुत कम फिल्म होती है जिसमें पैसा भी वसूल हो जाए और उसूल भी वसूल हो जाए। मारधाड़ एक्शन से भरपूर। मेरे पास बहुत कम जानकारी है, जिसके आधार पर निर्देशकों की पहली फिल्म की तुलनात्मक समीक्षा लिख सकूँ। इस लिहाज़ से अविनाश ने अच्छी फिल्म बनाई है। आप देखेंगे तो याद रखेंगे।

इस फिल्म का जो शहर है, शहर की जो बस्तियाँ हैं,बहुत दिनों से वहाँ कोई निर्देशक नहीं गया है। लाल क़िला की छवि को एक छोटे से संवाद और छोटे से शॉट से तोड़ कर फिल्म मेरे ज़हन में गहरे उतरती है। जब अनवर हीरामन से कहता है कि लाल क़िला भी तो दिखा दो। हीरामन बताता है कि लाल रंग की मेरी क़मीज़ है और क़िला जितना ऊँचा वो रहा आधे कच्चे आधे पक्के मकान है जिसे आरा बलिया और झाँसी से आए लोगों ने यमुना किनारे बसा लिया है। लाल किला की जगह वो प्रवासियों के खंडहर से दिखने वाले मकान दिखाता है।’
दिल्ली में आरा की अनारकली को चाहने वाले मिलते हैं, उसके गाने के ख़रीदार मिलते हैं और हीरामन जिसके स्मार्ट फोन में आरा का एम एम एस है। एम एम एस सत्ता से लड़ने का ताक़तवर हथियार बन जाता है। सिनेमा दिल्ली के भीतर समाये इस बाज़ार को नहीं खोज सका। अविनाश की अनारकली भागने वालों की राजधानी मुंबई नहीं भागती है। दिल्ली भागती है। भागने का डिस्कोर्स और लोकेशन बदल जाता है। राजनीतिक रूप से यह फिल्म विकास की ऐसी तैसी कर देती है।

इन सबके बीच निर्देशक नहीं भूलता है कि दर्शक मनोरंजन के लिए आए हैं। कहानी में भारत की वही शाश्वत क्रूरताएं हैं। सत्ता, पुलिस और लंपट वाइस चांसलर। ज़माने बाद वाइस चांसलर लुच्चा फ़ार्म में है। संजय भाई ने कायदे का अभिनय किया है। हास्य से निकल कर खलनायक की भूमिका में संयमित भी हैं और विखंडित भी। इस दौर के वीसी की बात हो रही है लेकिन यूपीए दौर के वाइस चांसलर भी ऐसे ही थे। अनारकली फिल्म है जिसमें वीसी के किरदार को सही से पकड़ा है। वीसी एक नया दारोगा है। दारोगा से भी बड़ा दारोगा। अनारकली हमारी नाकामी की एक और दास्तान है। सब कुछ वैसे ही है। यथावत।

कई बार लगता है कि आख़िर समाज बदल कहाँ रहा है। समाज का भूगोल बदल रहा है। आदमी हर जगह वही है।वो जहाँ विस्थापित होकर बस रहा है उस दिल्ली के कमरे ठीक वैसे ही जैसे कमरे में मैंने आकर पहली बार अपना बक्सा रखा था। कहानी के छोटे छोटे किरदार लाजवाब हैं। यह आम लोगों की फिल्म है। लेकिन हीरामन के ज़रिये यह फिल्म एक बात कहती है। आप फिल्म देखने के बाद सोचियेगा। हीरामन अनारकली को पाकर क्यों भावुक हो जाता है। वो क्यों अनारकली को देखकर रोता है। हीरामन अनारकली से प्यार नहीं करता है। कुछ और है जिसके लिए उसकी आँखें डबडबा जाती हैं।

पंकज त्रिपाठी ने भी एकदम टिपिकल आराइट अभिनय किया है। शानदार अभिनय किया है। पंकज त्रिपाठी का कपड़ा लाजवाब है। पंकज को कई फ़िल्मों से देख रहा हूँ। वो अपने अभिनय में अपने परिवेश के अनुभव को नहीं छोड़ते। बाकी हर पात्र अपनी जगह पर सही चुनाव और निर्देशन के कारण मज़ेदार लगते हैं। सब कुछ मौलिक है। वैसा ही जैसा है। फिल्म के गीत, संगीत और संवाद। अय हय।

मुझे पता है आप इस लेख में स्वरा को ढूँढ रहे हैं! वही जिसने अनारकली का किरदार निभाया है। आप कहेंगे कि अनारकली की कहानी लिख रहा हूँ और अनारकली ही अभी तक नहीं आई। ऐसे कैसे हो सकता है। यह फिल्म स्वरा भास्कर की अभिनय यात्रा का एक शानदार मुक़ाम है। क्लाइमैक्स इस फिल्म की जान है। वहाँ तक जो पहुँच गया वो एक शानदार अनुभव से और उम्मीदों से लबालब बाहर आएगा। वो अनारकली बनकर निकलेगा। आख़िरी के तमाम सीन फिल्म के भव्यतम क्षण हैं। उन क्षणों में स्वरा अपनी बंदिशों से आज़ाद होने लगता है। उसके भीतर का कलाकार ज़िदा होकर सैलाब की तरह बाहर निकलता है। अनारकली गाते गाते शिव का तांडव करने लगती हैं। वो अपने अभिनय से भी विद्रोह कर उठती हैं।

यह फिल्म तमाम तरह की अनारकलियों की गुमनाम सिसकियों का बदला है। जिस समाज ने उन्हें रंडी और वेश्या कहा उसी के बीच में पहुँचकर अनारकली सरे बाज़ार बदला लेती है। बहुत दिनों बाद किसी फिल्म में ऐसा बदला देखा है। रोया भी, भीतर से चीख़ा भी और एक बार कहने का मन भी किया कि जीयो अनारकली जीयो।

मैं आख़िरी सीन की स्वरा को बहुत दिनों तक अपनी आँखों में बंद रखना चाहूँगा। उस आख़िरी सीन को जब सत्ता की महफ़िल को खंडहर की तरह छोड़कर अनारकली रात अंधेरे में अकेले चलने लगती है। पूरी फिल्म में लोगों से घिरी रहती है। लोग उसका जिस्म नोचते हैं। लोग उसके गीतों को हवस समझते हैं। लोग उसके गीतों को प्यार करते हैं। लोग उसे जिस्म का धंधा करने वाली कहते हैं। लोग जो चुपचाप रहते हैं जब गुंडे अनारकली का पीछा करते हैं। उन तमाम लोगों को एक जगह जमा कर अनारकली उन्हें ध्वस्त कर देती है। इसलिए उसका अकेले चलना फिल्म का शानदार पल है। असहाय दर्शक ताकत महसूस करने लगता है। आज के दौर में निराशा से जूझ रहे लोगों को अनारकली बिना कहे बोल देती है कि जिससे डर लगता है, उस पर पूरी तैयारी से और अकेले हमला करो। जीत जाओगे। एक निर्देशक के तौर पर अविनाश ने उस आख़िरी शॉट में अपना कमाल दिखाया है। एक कलाकार के तौर पर स्वरा ने यादगार बना दिया है।